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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक कहना । बहुवचन से (सभी) सिद्ध प्रथम हैं, अप्रथम नहीं हैं । मिथ्यादृष्टिजीव मिथ्यादृष्टिभाव की अपेक्षा से आहारक जीवों के समान कहना । सम्यगमिथ्यादृष्टि जीव के विषय में सम्यगमिथ्यादृष्टिभाव की अपेक्षा से सम्यग्दृष्टि के समान (कहना) । विशेष यह है कि जिस जीव के सम्यग्मिथ्यादृष्टि हो, (उसी के विषय में कहना)।
संयत जीव और मनुष्य के विषय में, एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा, सम्यग्दृष्टि जीव के समान, असंयत-जीव के विषय में आहारक जीव के समान, संयतासंयत जीव, पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक और मनुष्य में सम्यग्दृष्टि के समान समझना चाहिए । नोसंयत-नोअसंयत और नोसंयतासंयत जीव, तथा सिद्ध, प्रथम हैं, अप्रथम नहीं है।
सकषायी, क्रोधकषायी यावत् लोभकषायी, ये सब एकवचन और बहुवचन से आहारक के समान जानना चाहिए । (एक) अकषायी जीव कदाचित् प्रथम और कदाचित् अप्रथम होता है । इसी प्रकार (एक अकषायी) मनुष्य भी (समझना चाहिए) । (अकषायी एक) सिद्ध प्रथम है, अप्रथम नहीं । बहुवचन से अकषायी जीव प्रथम भी है, अप्रथम भी है । बहुवचन से अकषायी सिद्धजीव प्रथम है, अप्रथम नहीं है।
ज्ञानी जीव, सम्यग्दृष्टि के समान कदाचित् प्रथम और कदाचित् अप्रथम होते हैं । आभिनिबोधिकज्ञानी यावत् मनःपर्यायज्ञानी, इसी प्रकार हैं । विशेष यह है जिस जीव के जो ज्ञान हो, वह कहना । केवलज्ञानी जीव, मनुष्य और सिद्ध, प्रथम हैं, अप्रथम नहीं हैं। अज्ञानी जीव, मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी, ये सब, एकवचन और बहुवचन से आहारक जीव के समान (जानने चाहिए)।
सयोगी, मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी जीव, एकवचन और बहुवचन से आहारक जीवों के समान अप्रथम होते हैं । विशेष यह है कि जिस जीव के जो योग हो, वह कहना चाहिए । अयोगी जीव, मनुष्य और सिद्ध, प्रथम होते हैं, अप्रथम नहीं होते हैं । साकारोपयुक्त और अनाकारोपयुक्त जीव, अनाहारक जीवों के समान हैं।
सवेदक यावत् नपुंसकवेद जीव, एकवचन और बहुवचन से, आहारक जीव के समान हैं । विशेष यह है कि, जिस जीव के जो वेद हो, (वह कहना चाहिए) । एकवचन और बहुवचन से, अवेदक जीव, जीव, मनुष्य और सिद्ध में अकषायी जीव के समान हैं।
सशरीरी जीव, आहारक जीव के समान हैं । इसी प्रकार यावत् कार्मणशरीरी जीव के विषय में भी जान लेना चाहिए । किन्तु आहारक-शरीरी के विषय में एकवचन और बहुवचन से, सम्यग्दृष्टि जीव के समान कहना चाहिए । अशरीरी जीव और सिद्ध, एकवचन और बहुवचन से प्रथम हैं, अप्रथम नहीं । पाँच पर्याप्तियों से पर्याप्त और पाँच अपर्याप्तियों से अपर्याप्त जीव, एकवचन और बहुवचन से, आहारक जीव के समान हैं । विशेष यह है कि जिसके जो पर्याप्ति हो, वह कहनी चाहिए । इस प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक जानना चाहिए । अर्थात्-ये सब प्रथम नहीं, अप्रथम हैं। -यह लक्षण गाथा है। सूत्र-७२३
जिस जीव को जो भाव पूर्व से प्राप्त है, उस भाव की अपेक्षा से वह जीव अप्रथम है, किन्तु जिन्हें जो भाव पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ है, उस भाव की अपेक्षा से वह जीव प्रथम कहलाता है। सूत्र - ७२४
भगवन् ! जीव, जीवभाव की अपेक्षा से चरम है या अचरम है ? गौतम ! चरम नहीं, अचरम है । भगवन् ! नैरयिक जीव, नैरयिकभाव की अपेक्षा से चरम है या अचरम है ? गौतम ! वह कदाचित् चरम है, और कदाचित् अचरम है । इसी प्रकार वैमानिक तक जानना चाहिए । सिद्ध का कथन जीव के समान जानना चाहिए । अनेक जीवों के विषय में चरम-अचरम-सम्बन्धी प्रश्न । गौतम ! वे चरम नहीं, अचरम हैं । नैरयिकजीव, नैरयिकभाव से चरम भी हैं, अचरम भी हैं । इसी प्रकार वैमानिक तक समझना चाहिए । सिद्धों का कथन जीवों के समान है।
आहारकजीव सर्वत्र एकवचन से कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम होता है । बहुवचन से आहारक चरम भी होते हैं और अचरम भी होते हैं । अनाहारक जीव और सिद्ध भी चरम नहीं हैं, अचरम हैं । शेष स्थानों में (अनाहारक) आहारक जीव के समान जानना । भवसिद्धिकजीव, जीवपद में, चरम हैं, अचरम नहीं हैं । शेष स्थानों में
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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