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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक सूत्र - २३०
'भगवन् !' इस प्रकार सम्बोधित करके भगवान गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दनानमस्कार किया यावत् पूछा-भगवन् ! क्या देवों को संयत कहा जा सकता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, यह देवों के लिए अभ्याख्यान है । भगवन् ! क्या देवों को असंयत कहना चाहिए ? गौतम ! यह अर्थ (भी) समर्थ नहीं है। देवों के लिए यह निष्ठुर वचन है । भगवन् ! क्या देवों को संयतासंयत कहना चाहिए ? गौतम ! यह अर्थ (भी) समर्थ नहीं है, यह असद्भूत वचन है । भगवन् ! तो फिर देवों को किस नाम से कहना चाहिए ? गौतम ! देवों को नोसंयत कहा जा सकता है। सूत्र - २३१
भगवन् ! देव कौन-सी भाषा बोलते हैं ? अथवा (देवों द्वारा) बोली जाती हुई कौन-सी भाषा विशिष्टरूप होती है ? गौतम ! देव अर्धमागधी भाषा बोलते हैं, और बोली जाती हुई वह अर्धमागधी भाषा ही विशिष्टरूप होती है। सूत्र-२३२
भगवन् ! क्या केवली मनुष्य संसार का अन्त करने वाले को अथवा चरमशरीरी को जानता-देखता है ? हाँ, गौतम ! वह उसे जानता-देखता है । भगवन् ! जिस प्रकार केवली मनुष्य अन्तकर को, अथवा अन्तिमशरीरी को जानता-देखता है, क्या उसी प्रकार छद्मस्थ-मनुष्य जानता-देखता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं, छद्मस्थ मनुष्य किसी से सूनकर अथवा प्रमाण द्वारा अन्तकर और अन्तिम शरीरी को जानता-देखता है।
भगवन् ! सूनकर का अर्थ क्या है ? हे गौतम ! केवली से, केवली के श्रावक से, केवली की श्राविका से, केवली के उपासक से, केवली की उपासिका से, केवली-पाक्षिक से, केवलीपाक्षिक के श्रावक से, केवली-पाक्षिक की श्राविका से, केवलीपाक्षिक के उपासक से अथवा केवलीपाक्षिक की उपासिका से, इनमें से किसी भी एक से सूनकर छद्मस्थ मनुष्य यावत् जानता और देखता है । यह हुआ सून कर का अर्थ । सूत्र-२३३
भगवन् ! वह प्रमाण क्या है ? कितने हैं ? गौतम ! प्रमाण चार प्रकार का कहा गया है । वह इस प्रकार है(१) प्रत्यक्ष, (२) अनुमान, (३) औपम्य (उपमान) और (४) आगम । प्रमाण के विषय में जिस प्रकार अनुयोग-द्वारसूत्र में कहा गया है, उसी प्रकार यहाँ भी जान लेना यावत् न आत्मागम, न अनन्तरागम, किन्तु परम्परागम तक कहना। सूत्र-२३४
भगवन् ! क्या केवली मनुष्य चरम कर्म को अथवा चरम निर्जरा को जानता-देखता है ? हाँ, गौतम ! केवली चरम कर्म को या चरम निर्जरा को जानता-देखता है । भगवन् ! जिस प्रकार केवली चरमकर्म को या चरम निर्जरा को जानता-देखता है, क्या उसी तरह छद्मस्थ भी...यावत् जानता-देखता है ? गौतम ! जिस प्रकार अन्तकर के विषय में आलापक कहा था, उसी प्रकार चरमकर्म का पूरा आलापक कहना चाहिए। सूत्र - २३५
भगवन् ! क्या केवली प्रकृष्ट मन और प्रकृष्ट वचन धारण करता है ? हाँ, गौतम ! धारण करता है । भगवन् केवली जिस प्रकार के प्रकृष्ट मन और प्रकृष्ट वचन को धारण करता है, क्या उसे वैमानिक देव जानते-देखते हैं ? गौतम ! कितने ही (वैमानिक देव उसे) जानते-देखते हैं, और कितने ही नहीं जानते-देखते । भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है ? गौतम ! वैमानिक देव दो प्रकार के कहे गए हैं; मायीमिथ्यादृष्टिरूप से उत्पन्न और अमायीसम्यग्दृष्टिरूप से उत्पन्न । जो मायी-मिथ्यादृष्टिरूप से उत्पन्न हुए हैं, वे नहीं जानते-देखते तथा जो अमायीसम्यग्दृष्टिरूप से उत्पन्न हुए हैं, वे जानते-देखते हैं । भगवन् ! यह किस कारण से कहा जाता है कि अमायी सम्यग्दृष्टि वैमानिक देव यावत् जानते-देखते हैं ? गौतम ! अमायी सम्यग्दृष्टि वैमानिक देव दो प्रकार के कहे गए हैं, यथाअनन्तरोपपन्नक और परम्परोपपन्नक | इनमें से जो अनन्तरोपपन्नक हैं, वे नहीं जानते-देखते; किन्तु जो परम्परोपपन्नक हैं, वे जानते-देखते हैं।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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