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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/सूत्रांक सूत्र-२०
बन्ध, उदय, वेदन, अपवर्त्तन, संक्रमण, निधत्तन और निकाचन के विषय में अचलित कर्म समझना चाहिए और निर्जरा के विषय में चलित कर्म समझना चाहिए। सूत्र - २१
इसी तरह स्थिति और आहार के विषय में भी समझ लेना । जिस तरह स्थिति पद में कहा गया है उसी तरह स्थिति विषय में कहना चाहिए। सर्व जीव संबंधी आहार भी पन्नवणा सूत्र के प्रथम उद्देशक में कहा गया है उसी तरह कहना चाहिए।
भगवन! असरकमारों की स्थिति कितने काल की है? हे गौतम! जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कष्ट एक सागरोपम से कुछ अधिक की है । भगवन् ! असुरकुमार कितने समय में श्वास लेते हैं और निःश्वास छोड़ते हैं? गौतम ! जघन्य सात स्तोकरूप काल में और उत्कृष्ट एक पक्ष से (कुछ) अधिक काल में श्वास लेते और छोड़ते हैं।
हे भगवन् ! क्या असुरकुमार आहार के अभिलाषी होते हैं ? हाँ, गौतम ! (वे) आहार के अभिलाषी होते हैं। हे भगवन् ! असुरकुमारों को कितने काल में आहार की ईच्छा उत्पन्न होती है ? गौतम ! असुरकुमारों को आहार दो प्रकार का कहा गया है; जैसे कि-आभोगनिवर्तित और अनाभोग-निवर्तित । इन दोनों में से जो अनाभोग-निर्वर्तित आहार है, वह विरहरहित प्रतिसमय (सतत) होता रहता है । (किन्तु) आभोगनिवर्तित आहार की अभिलाषा जघन्य चतुर्थभक्त अर्थात्-एक अहोरात्र से और उत्कृष्ट एक हजार वर्ष से कुछ अधिक काल में होती है।
भगवन् ! असुरकुमार किन पुद्गलों का आहार करते हैं ? गौतम ! द्रव्य से अनन्तप्रदेशी द्रव्यों का आहार करते हैं । क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से प्रज्ञापनासूत्र का वही वर्णन जान लेना चाहिए, जो नैरयिकों के प्रकरण में कहा गया है।
हे भगवन् ! असुरकुमारों द्वारा आहार किये हए पुदगल किस रूप में बार-बार परिणत होते हैं ? हे गौतम! श्रोत्रेन्द्रिय रूप में यावत् स्पर्शेन्द्रिय रूप में, सुन्दर रूप में, सुवर्णरूप में, इष्ट रूप में, ईच्छित रूप में, मनोहर (अभिलषित) रूप में, ऊर्ध्वरूप में परिणत होते हैं, अधःरूप में नहीं; सुखरूप में परिणत होते हैं, किन्तु दुःखरूप में परिणत नहीं होते।
हे भगवन् ! क्या असुरकुमारों द्वारा आहृत-पुद्गल परिणत हुए ? गौतम ! असुरकुमारों के अभिलाप में, अर्थात्-नारकों के स्थान पर असुरकुमार शब्द का प्रयोग करके अचलित कर्म की निर्जरा करते हैं. यहाँ तक सभी आलापक नारकों के समान ही समझना।
हे भगवन् ! नागकुमार देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट कुछ कम दो पल्योपम की है । हे भगवन् ! नागकुमार देव कितने समय में श्वास लेते हैं और छोड़ते हैं? गौतम ! जघन्यतः सात स्तोक में और उत्कृष्टतः मुहूर्त्त-पृथक्त्व में श्वासोच्छ्वास लेते हैं । भगवन् ! क्या नागकुमार देव आहारार्थी होते हैं ? हाँ, गौतम ! वे आहारार्थी होते हैं।
भगवन् ! नागकुमार देवों को कितने काल के अनन्तर आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है ? गौतम ! नागकुमार देवों का आहार दो प्रकार का कहा गया है-आभोगनिवर्तित और अनाभोग-निवर्तित । इनमें जो अनाभोगनिवर्तित आहार है, वह प्रतिसमय विरहरहित (सतत) होता है; किन्तु आभोगनिवर्तित आहार की अभिलाषा जघन्यतः चतुर्थभक्त (एक अहोरात्र) पश्चात् और उत्कृष्टतः दिवस-पृथक्त्व के बाद उत्पन्न होती है । शेष चलित कर्म की निर्जरा करते हैं, किन्तु अचलित कर्म की निर्जरा नहीं करते यहाँ तक सारा वर्णन असुरकुमार देवों की तरह समझ लेना चाहिए।
इसी तरह सुपर्णकुमार देवों से लेकर स्तनितकुमार देवों तक के भी (स्थिति से लेकर चलित कर्म-निर्जरा तक के) सभी आलापक (पूर्ववत्) कह देने चाहिए।
भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की, और
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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