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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक अभिसमन्वागत उस दिव्य देवऋद्धि यावत् देवप्रभाव को देवेन्द्र देवराज शक्र जानें । हे गौतम ! इस कारण (प्रयोजन) से असुरकुमार देव यावत् सौधर्मकल्प एक ऊपर जाते हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-३ - उद्देशक-३ सूत्र-१७८
उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था; यावत् परिषद् (धर्मकथा सून) वापस चली गई । उस काल और उस समय में भगवान के अन्तेवासी प्रकृति से भद्र मण्डितपुत्र नामक अनगार यावत् पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले- भगवन् ! क्रियाएं कितनी कही गई हैं ? हे मण्डितपुत्र ! क्रियाएं पाँच कही गई हैं । -कायिकी, आधिकर-णिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातिकी क्रिया ।
भगवन् ! कायिकी क्रिया कितने प्रकार की कही गई है ? मण्डितपुत्र ! कायिकी क्रिया दो प्रकार की कही गई है । वह इस प्रकार अनुपरतकाय-क्रिया और दुष्प्रयुक्तकाय-क्रिया।।
भगवन् ! आधिकरणिकी क्रिया कितने प्रकार की है ? मण्डितपुत्र ! दो प्रकार की है । -संयोजनाधिकरणक्रिया और निर्वर्तनाधिकरण-क्रिया।
भगवन् ! प्राद्वेषिकी क्रिया कितने प्रकार की है ? मण्डितपुत्र ! प्राद्वेषिकी क्रिया दो प्रकार की है । जीवप्रादेषिकी और अजीव-प्रादेषिकी क्रिया।
भगवन् ! पारितापनिकी क्रिया कितने प्रकार की है ? मण्डितपुत्र ह पारितापनिकी क्रिया दो प्रकार की कही गई है। स्वहस्तपारितापनिकी और परहस्तपारितापनिकी।
भगवन् ! प्राणातिपात-क्रिया कितने प्रकार की कही गई है ? मण्डितपुत्र ! प्राणातिपात-क्रिया दो प्रकार कीस्वहस्त-प्राणातिपात-क्रिया और परहस्त-प्राणातिपात-क्रिया। सूत्र-१७९
भगवन् ! पहले क्रिया होती है, और पीछे वेदना होती है ? अथवा पहले वेदना होती है, पीछे क्रिया होती है? मण्डितपुत्र ! पहले क्रिया होती है, बाद में वेदना होती है; परन्तु पहले वेदना हो और पीछे क्रिया हो, ऐसा नहीं होता। सूत्र-१८०
भगवन् ! क्या श्रमण-निर्ग्रन्थों के (भी) क्रिया होती (लगती) है ? हाँ, होती है । भगवन् ! श्रमण निर्ग्रन्थों के क्रिया कैसे हो जाती है ? मण्डितपुत्र ! प्रमाद के कारण और योग के निमित्त से इन्हीं दो कारणों से श्रमण-निर्ग्रन्थों को क्रिया होती (लगती) है। सूत्र - १८१
भगवन् ! क्या जीव सदा समित (मर्यादित) रूप में काँपता है, विविध रूप में काँपता है, चलता है, स्पन्दन क्रिया करता है, घट्टित होता (घूमता) है, क्षुब्ध होता है, उदीरित होता या करता है; और उन-उन भावों में परिणत होता है ? हाँ, मण्डितपुत्र ! जीव सदा समित-(परिमित) रूप से काँपता है, यावत् उन-उन भावों में परिणत होता है। भगवन् ! जब तक जीव समित-परिमित रूप से काँपता है, यावत् उन-उन भावों में परिणत (परिवर्तित) होता है, तब तक क्या उस जीव की अन्तिम समय में अन्तक्रिया होती है ? मण्डितपुत्र ! यह अर्थ समर्थ नहीं है; भगवन्! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? हे मण्डितपुत्र ! जीव जब तक सदा समित रूप से काँपता है, यावत उन-उन भावों में परिणत होता है, तब तक वह (जीव) आरम्भ करता है, संरम्भ में रहता है, समारम्भ करता है, आरम्भ में रहता है, संरम्भ में रहता है, और समारम्भ में रहता है | आरम्भ, संरम्भ और समारम्भ करता हुआ तथा आरम्भ में, संरम्भ में, और समारम्भ में, प्रवर्तमान जीव, बहुत-से प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को दुःख पहुँचाने में, शोक कराने में, झुराने में, रुलाने अथवा
आँसू गिरवाने में, पिटवाने में, और परिताप देने में प्रवृत्त होता है। इसलिए हे मण्डितपुत्र ! ऐसा कहा जाता है कि जब तक जीव सदा समितरूप से कम्पित होता है, यावत् उन-उन भावों में परिणत होता है, तब तक वह जीव, अन्तिम समय में अन्तक्रिया नहीं कर सकता।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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