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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक शतक-३
उद्देशक-१ सूत्र-१५१
तृतीय शतक में दस उद्देशक हैं । प्रथम उद्देशक में चमरेन्द्र की विकुर्वणा-शक्ति कैसी है ? इत्यादि प्रश्नोत्तर हैं, दूसरे उद्देशक में चमरेन्द्र का उत्पात, तृतीय उद्देशक में क्रियाओं । चतुर्थ में देव द्वारा विकुर्वित यान को साधु जानता है? इत्यादि प्रश्नों । पाँचवे उद्देशक में साधु द्वारा स्त्री आदि के रूपों की विकर्वणा-सम्बन्धी प्रश्नोत्तर । छठे में नगरसम्बन्ध वर्णन । सातवे में लोकपाल-विषयक वर्णन | आठवे में अधिपति-सम्बन्धी वर्णन । नौवे में इन्द्रियों के सम्बन्ध में निरूपण और दसवे में चमरेन्द्र की परीषद का वर्णन है। सूत्र - १५२
उस काल उस समयमें मोका नगरी थी । मोका नगरी के बाहर ईशानकोण में नन्दन चैत्य था । उस काल उस समयमें श्रमण भगवान महावीर स्वामी वहाँ पधारे । परीषद् नीकली । धर्मोपदेश सूनकर परीषद् वापस चली गई
उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर के द्वीतिय अन्तेवासी अग्निभूति नामक अनगार जिनका गोत्र गौतम था, तथा जो सात हाथ ऊंचे थे, यावत् पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले (पूछने लगे)- भगवन् ! असुरों का इन्द्र असुरराज चमरेन्द्र कितनी बड़ी ऋद्धि वाला है ? कितनी बड़ी द्युति-कान्ति वाला है ? कितने महान बल से सम्पन्न है ? कितना महान यशस्वी है ? कितने महान सुखों से सम्पन्न है ? कितने महान प्रभाव वाला है ? और वह कितनी विकुर्वणा करने में समर्थ है?
गौतम ! असुरों का इन्द्र असुरराज चमर महान् ऋद्धि वाला है यावत् महाप्रभावशाली है। वह वहाँ चौंतीस लाख भवनावासों पर, चौंसठ हजार सामानिक देवों पर और तैंतीस त्रायस्त्रिंशक देवों पर आधिपत्य करता हुआ यावत् विचरण करता है । इतनी बड़ी ऋद्धि वाला है, यावत् ऐसे महाप्रभाव वाला है; तथा उसकी विक्रिया करने की शक्ति इस प्रकार है-हे गौतम ! जैसे कोई युवा पुरुष हाथ से युवती स्त्री के हाथ को पकड़ता है, अथवा जैसे गाड़ी के पहिये की धूरी आरों से अच्छी तरह जुड़ी हुई एवं सुसम्बद्ध होती है, इसी प्रकार असुरेन्द्र असुरराज चमर, वैक्रिय समुद्घात द्वारा समवहत होता है, समवहत होकर संख्यात योजन तक लम्बा दण्ड नीकालता है । तथा उसके द्वारा रत्नों के, यावत् रिष्ट रत्नों के स्थूल पुद्गलों को झाड़ देता है और सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण करता है । फिर दूसरी बार वैक्रिय समुद्घात द्वारा समवहत होता है । हे गौतम ! वह असुरेन्द्र असुरराज चमर, बहुत-से असुरकुमार देवों और देवियों द्वारा परिपूर्ण जम्बूद्वीप को आकीर्ण, व्यतिकीर्ण, उपस्तीर्ण, संस्तीर्ण, स्पृष्ट और गाढ़ावगाढ़ करने में समर्थ है। हे गौतम ! इसके उपरांत वह असुरेन्द्र असुरराज चमर, अनेक असुरकुमार देव-देवियों द्वारा इस तिर्यग्लोक में भी असंख्यात द्वीपों और समुद्रों तक के स्थल को आकीर्ण, व्यतिकीर्ण, उपस्तीर्ण, संस्तीर्ण, स्पृष्ट और गाढ़ावगाढ़ कर सकता है । हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की ऐसी शक्ति है, विषय है, विषयमात्र है, परन्तु चमरेन्द्र ने इस सम्प्राप्ति से कभी विकुर्वण किया नहीं, न ही करता है और न ही करेगा।
भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर जब ऐसी बड़ी ऋद्धि वाला है, यावत् इतनी विकुर्वणा करने में समर्थ है, तब हे भगवन ! उस असुरराज असुरेन्द्र चमर के सामानिक देवों की कितनी बडी ऋद्धि है. यावत वे कितना विकर्वण करने में समर्थ हैं?
हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर के सामानिक देव, महती ऋद्धिवाले हैं, यावत् महाप्रभावशाली हैं । वे वहाँ अपने-अपने भवनों पर, अपने-अपने सामानिक देवों पर तथा अपनी-अपनी अग्रमहिषियों पर आधिपत्य करते हए, यावत् दिव्य भोगों का उपभोग करते हुए विचरते हैं। ये इस प्रकार की बड़ी ऋद्धिवाले हैं, यावत् इतना विकुर्वण करने में समर्थ है-हे गौतम ! विकुर्वण करने के लिए असुरेन्द्र असुरराज चमर का एक-एक सामानिक देव, वैक्रिय समुद्घात द्वारा समवहत होता है और यावत् दूसरी बार भी वैक्रिय समुद्घात द्वारा समवहत होता है। जैसे कोई युवा पुरुष अपने हाथ से युवती स्त्री के हाथ को पकड़ता है, तो वे दोनों दृढ़ता से संलग्न मालूम होते हैं, अथवा जैसे गाड़ी के
मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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