________________
आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1' शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक गए हैं, यथा-रूपी और अरूपी । जो रूपी हैं, वे चार प्रकार के कहे गए हैं-स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्ध प्रदेश और परमाणुपुद्गल । जो अरूपी हैं, उनके पाँच भेद कहे गए हैं । वे इस प्रकार-धर्मास्ति-काय, नोधर्मास्तिकाय का देश, धर्मास्तिकाय के प्रदेश, अधर्मास्तिकाय, नोअधर्मास्तिकाय का देश, अधर्मास्तिकाय के प्रदेश और अद्धासमय हैं। सूत्र-१४६
भगवन् ! क्या अलोकाकाश में जीव यावत् अजीवप्रदेश हैं ? गौतम ! अलोकाकाश में न जीव हैं, यावत् न ही अजीवप्रदेश हैं । वह एक अजीवद्रव्य देश है, अगुरुलघु है तथा अनन्त अगुरुलघु-गुणों से संयुक्त है; वह अनन्तभागःकम सर्वाकाशरूप है। सूत्र - १४७
भगवन् ! धर्मास्तिकाय कितना बड़ा कहा गया है ? गौतम ! धर्मास्तिकाय लोकरूप है, लोकमात्र है, लोकप्रमाण है, लोकस्पृष्ट है, लोकको ही स्पर्श करके कहा हुआ है । इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिए । इन पाँचों के सम्बन्ध में एक समान अभिलाप है। सूत्र-१४८
भगवन ! धर्मास्तिकाय के कितने भाग को अधोलोक स्पर्श करता है ? गौतम ! अधोलोक धर्मास्तिकाय के आधे से कुछ अधिक भाग को स्पर्श करता है। भगवन ! धर्मास्तिकाय के कितने भाग को तिर्यगलोक स्पर्श करता है? पृच्छा० । गौतम ! तिर्यग्लोक धर्मास्तिकाय के असंख्येय भाग को स्पर्श करता है । भगवन् ! धर्मास्तिकाय के कितने भाग को ऊर्ध्वलोक स्पर्श करता है ? गौतम ! ऊर्ध्वलोक धर्मास्तिकाय के देशोन अर्धभाग को स्पर्श करता है। सूत्र-१४९
भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी, क्या धर्मास्तिकाय के संख्यातभाग को स्पर्श करती है या असंख्यातभाग को स्पर्श करती है, अथवा संख्यातभागों को स्पर्श करती है या असंख्यात भागों को स्पर्श करती है अथवा समग्र को स्पर्श करती है? गौतम! यह रत्नप्रभापृथ्वी, धर्मास्तिकाय के संख्यातभाग को स्पर्श नहीं करती, अपितु असंख्यात भाग को स्पर्श करती है। इसी प्रकार संख्यातभागों को, असंख्यातभागों को या समग्र धर्मास्तिकाय को स्पर्श नहीं करती।
भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी का घनोदधि, धर्मास्तिकाय के संख्येय भाग को स्पर्श करता है; यावत् समग्र धर्मास्तिकाय को स्पर्श करता है ? इत्यादि पृच्छा । हे गौतम ! जिस प्रकार रत्नप्रभापृथ्वी के लिए कहा गया है, उसी प्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी के घनोदधि के विषय में कहना चाहिए । और उसी तरह घनवात और तनुवात के विषय में भी कहना चाहिए।
भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का अवकाशान्तर क्या धर्मास्तिकाय के संख्येय भाग को स्पर्श करता है, अथवा असंख्येय भाग को स्पर्श करता है ?, यावत् सम्पूर्ण धर्मास्तिकाय को स्पर्श करता है ? गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी का अवकाशान्तर, धर्मास्तिकाय के संख्येय भाग को स्पर्श करता है, किन्तु असंख्येय भाग को, संख्येय भागों को, असंख्येय भागों को तथा सम्पूर्ण धर्मास्तिकाय को स्पर्श नहीं करता । इसी तरह समस्त अवकाशान्तरों के सम्बन्ध में कहना । रत्नप्रभा पृथ्वी के समान यावत् सातवी पृथ्वी तक कहना।
तथा जम्बूद्वीप आदि द्वीप और लवणसमुद्र आदि समुद्र] सौधर्मकल्प से लेकर (यावत् ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी तक, ये सभी धर्मास्तिकाय के असंख्येय भाग को स्पर्श करते हैं । शेष भागों की स्पर्शना का निषेध करना चाहिए । जैसे धर्मास्तिकाय की स्पर्शना कही, वैसे अधर्मास्तिकाय और लोकाकाशास्तिकाय स्पर्शना के विषयमें भी कहना। सूत्र-१५०
पृथ्वी, घनोदधि, घनवात, तनुवात, कल्प, ग्रैवेयक, अनुत्तर, सिद्धि (ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी) तथा सात अवकाशान्तर, इनमें से अवकाशान्तर तो धर्मास्तिकाय के संख्येय भाग का स्पर्श करते हैं और शेष सब धर्मास्तिकाय के असंख्येय भाग का स्पर्श करते हैं।
शतक-२ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 56