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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/सूत्रांक
[५/१] भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति अंगसूत्र- ५/१ - हिन्दी अनुवाद
शतक-१
उद्देशक-१ सूत्र-१
अर्हन्तों को नमस्कार हो, सिद्धों को नमस्कार हो, आचार्यों को नमस्कार हो, उपाध्यायों को नमस्कार हो, लोक में सर्व साधुओं को नमस्कार हो । सूत्र-२
ब्राह्मी लिपिको नमस्कार हो। सूत्र-३
(प्रथम शतक के दस उद्देशकों की संग्रहणी गाथा इस प्रकार है-) "चलन के विषय में प्रश्न), दुःख, कांक्षाप्रदोष, (कर्म) प्रकृति, पृथ्वीयाँ, यावत्, नैरयिक, बाल, गुरुक और चलनादि । सूत्र -४
श्रुत (द्वादशांगीरूप अर्हत्प्रवचन) को नमस्कार हो । सूत्र-५
उस काल (अवसर्पिणी काल के) और उस समय (चौथे आरे-भगवान महावीर के युग में) राजगृह नामक नगर था । (उसका वर्णन औपपातिक सूत्र में अंकित चम्पानगरी के वर्णन के समान समझ लेना चाहिए) उस रागज़ह नगर के बाहर ईशानकोण में गुणशीलक नामक चैत्य था । वहाँ श्रेणिक राजा था और चिल्लणादेवी रानी थी। सूत्र -६
उस काल में, उस समय में (वहाँ) श्रमण भगवान महावीर स्वामी विचरण कर रहे थे, जो आदि-कर, तीर्थंकर, स्वयं तत्त्व के ज्ञाता, पुरुषोत्तम, पुरुषों में सिंह की तरह पराक्रमी, पुरुषों में श्रेष्ठ पुण्डरीक-श्वेत कमल रूप, पुरुषों में श्रेष्ठ गन्धहस्ती के समान, लोकोत्तम, लोकनाथ, लोकहितकर, लोक-प्रदीप, लोकप्रद्योतकर, अभयदाता, श्रुतधर्मरूपी नेत्रदाता, मोक्षमार्ग-प्रदर्शक, शरणदाता, बोधिदाता, धर्मदाता, धर्मोपदेशक, धनायक, धर्म-सारथि, धर्मवर-चातुरन्तचक्रवर्ती, अप्रतिहत ज्ञान-दर्शनधर, छद्मरहित, जिन, ज्ञायक, बुद्ध, बोधक, बाह्य-आभ्यन्तर ग्रन्थि से रहित, दूसरों को कर्मबन्धनों से मुक्त कराने वाले, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी थे । तथा जो सर्व बाधाओं से रहित, अचल, रोगरहित, अनन्तज्ञानदर्शनादियुक्त, अक्षय, अव्याबाध, पुनरागमनरहित सिद्धिगति नामक स्थान को सम्प्राप्त करने के इच्छुक थे सूत्र -७
(भगवान महावीर का पदार्पण जानकर) परीषद् (राजगृह के राजादि लोग तथा अन्य नागरिकों का समूह भगवान के दर्शन, वन्दन एवं धर्मोपदेश श्रवण के लिए) नीकली । (भगवान ने उस विशाल परीषद् को) धर्मोपदेश दिया । परीषद्वापस लौट गई। सूत्र-८
उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के पास उत्कुटुकासन से नीचे सिर झुकाए हुए, ध्यान रूपी कोठे में प्रविष्ट श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ शिष्य इन्द्रभूति नामक अनगार संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरण करते थे । वह गौतम-गोत्रीय थे, सात हाथ ऊंचे, समचतुरस्र संस्थान एवं वज्रऋषभ-नाराच संहनन वाले थे । उनके शरीर का वर्ण सोने के टुकड़े की रेखा के समान तथा पद्म-पराग के समान (गौर) था। वे उग्रतपस्वी, दीप्ततपस्वी, तप्ततपस्वी, महातपस्वी, उदार, घोर (परीषह तथा इन्द्रियादि पर विजय पाने में कठोर),
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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