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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक शतक-२
उद्देशक-१ सूत्र-१०५
द्वीतिय शतक में दस उद्देशक हैं। उनमें क्रमश: इस प्रकार विषय हैं श्वासोच्छवास, समुद्घात, पृथ्वी, इन्द्रियाँ, निर्ग्रन्थ, भाषा, देव, (चमरेन्द्र) सभा, द्वीप (समयक्षेत्र का स्वरूप) और अस्तिकाय (का विवेचन)। सूत्र-१०६
उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर था। भगवान महावीर स्वामी (वहाँ) पधारे । उनका धर्मोपदेश सूनने के लिए परीषद् नीकली । भगवान ने धर्मोपदेश दिया । धर्मोपदेश सूनकर परीषद् वापिस लौट गई । उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी (शिष्य) श्री इन्द्रभूति गौतम अनगार यावत्-भगवान की पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले
भगवन् ! ये जो द्वीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव हैं, उनके आभ्यन्तर और बाह्य उच्छवास को और आभ्यन्तर एवं बाह्य निःश्वास को हम जानते और देखते हैं, किन्तु जो ये पृथ्वीकाय से यावत् वनस्पतिकाय तक एकेन्द्रिय जीव हैं, उनके आभ्यन्तर एवं बाह्य उच्छ्वास को तथा आभ्यन्तर एवं बाह्य निःश्वास को हम न जानते हैं, और न देखते हैं । तो हे भगवन् ! क्या ये पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय जीव आभ्यन्तर और बाह्य उच्छ्वास लेते हैं तथा आभ्यन्तर और बाह्य निःश्वास छोड़ते हैं ? हाँ, गौतम ! ये पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय जीव भी आभ्यन्तर और बाह्य उच्छ वास लेते हैं और आभ्यन्तर एवं बाह्य निःश्वास छोड़ते हैं। सूत्र - १०७
भगवन् ! ये पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय जीव, किस प्रकार के द्रव्यों को बाह्य और आभ्यन्तर उच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते हैं, तथा निःश्वास के रूप में छोड़ते हैं ? गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा अनन्तप्रदेश वाले द्रव्यों को, क्षेत्र की अपेक्षा असंख्येयप्रदेशों में रहे हुए द्रव्यों को, काल की अपेक्षा किसी भी प्रकार की स्थिति वाले द्रव्यों को, तथा भाव की अपेक्षा वर्ण वाले, गन्ध वाले, रस वाले और स्पर्श वाले द्रव्यों को बाह्य और आभ्यन्तर उच्छवास के रूप में ग्रहण करते हैं, तथा निःश्वास के रूप में छोड़ते हैं।
भगवन् ! वे पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय जीव भाव की अपेक्षा वर्ण वाले जिन द्रव्यों को बाह्य और आभ्यन्तर श्वासोच्छवास के रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हैं, क्या वे द्रव्य एक वर्ण वाले हैं ? हे गौतम ! जैसा कि प्रज्ञापना-सूत्र के अट्ठाईसवें आहारपद में कथन किया है, वैसा ही यहाँ समझना चाहिए । यावत् वे तीन, चार, पाँच दिशाओं की ओर से श्वासोच्छ्वास के पुद्गलों को ग्रहण करते हैं । भगवन् ! नैरयिक किस प्रकार के पुद्गलों को बाह्य और आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हैं ? गौतम ! इस विषय में पूर्वकथनानुसार ही जानना चाहिए और यावत्-वे नियम से छहों दिशा से पुद्गलों को बाह्य एवं आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हैं। जीवसामान्य और एकेन्द्रियों के सम्बन्ध में इस प्रकार कहना चाहिए कि यदि व्याघात न हो तो वे सब दिशाओं से और यदि व्याघात हो तो कदाचित् तीन दिशा से, कदाचित् चार दिशा से और कदाचित् पाँच दिशा से श्वासोच्छ्वास के पुद् गलों को ग्रहण करते हैं। शेष सब जीव नियम से छह दिशा से श्वासोच्छ्वास के पुद्गलों को ग्रहण करते हैं। सूत्र-१०८
हे भगवन ! क्या वायकाय, वायकायों की ही बाहा और आभ्यन्तर उच्छवास और निःश्वास के रूप में ग्रहण करता और छोडता है? हाँ, गौतम ! वायुकाय, वायुकायों को ही बाह्य और आभ्यन्तर उच्छवास और निःश्वास के रूप में ग्रहण करता और छोड़ता है। भगवन् ! क्या वायुकाय, वायुकाय में ही अनेक लाख बार मरकर पुनः पुनः (वायुकाय में ही) उत्पन्न होता है ? हाँ, गौतम ! वह पुनः वहीं उत्पन्न होता है।
भगवन् ! क्या वायुकाय स्वकायशस्त्र से या परकायशस्त्र से स्पृष्ट होकर क्या मरण पाता है, अथवा अस्पृष्ट ही मरण पाता है ? गौतम ! वायुकाय, स्पृष्ट होकर मरण पाता है, किन्तु स्पष्ट हुए बिना मरण नहीं पाता । भगवन् !
मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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