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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक किया और विचरण करने लगे।
इसके पश्चात् कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने बहुत वर्षों तक श्रमणपर्याय का पालन किया और जिस प्रयोजन से नग्नभाव, मुण्डभाव, अस्नान, अदन्तधावन, छत्रवर्जन, पैरों में जूते न पहनना, भूमिशयन, फलक पर शय्या, काष्ठ पर शयन, केशलोच, ब्रह्मचर्यवास, भिक्षार्थ गहस्थों के घरों में प्रवेश, लाभ और अलाभ, अनुकूल और प्रतिकूल, इन्द्रियसमूह के लिए कण्टकसम चुभने वाले कठोर शब्दादि इत्यादि २२ परीषहों को सहन करना, इन सब का स्वीकार किया, उस अभीष्ट प्रयोजन की सम्यक्रूप से आराधना की। और वह अन्तिम उच्छ्वास-निःश्वास द्वारा सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए और समस्त दुःखों से रहित हुए। सूत्र-९९
भगवन् ! ऐसा कहकर भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दन-नमस्कार किया । तत्पश्चात् वे इस प्रकार बोले-भगवन् ! क्या श्रेष्ठी और दरिद्र को, रंक को और क्षत्रिय को अप्रत्याख्यान क्रिया समान होती है ? हाँ, गौतम ! श्रेष्ठी यावत् क्षत्रिय राजा के द्वारा अप्रत्याख्यान क्रिया समान की जाती है; भगवन् ! आप ऐसा किस हेतु से कहते हैं? गौतम! (इन चारों की) अविरति को लेकर ऐसा कहा जाता है। सूत्र - १००
भगवन् ! आधाकर्मदोषयुक्त आहारादि का उपभोग करता हआ श्रमणनिर्ग्रन्थ क्या बाँधता है ? क्या करता है? किसका चय (वृद्धि) करता है, और किसका उपचय करता है ? गौतम ! आधाकर्मदोषयुक्त आहारादि का उपभोग करता हुआ श्रमणनिर्ग्रन्थ आयुकर्म को छोड़कर शिथिलबन्धन से बंधी हुई सात कर्मप्रकृतियों को दृढ़-बन्धन से बंधी हुई बना लेता है, यावत्-संसार में बार-बार पर्यटन करता है । भगवन् ! इसका क्या कारण है ? गौतम ! आधाकर्मी आहारादि का उपभोग करता हुआ श्रमणनिर्ग्रन्थ अपने आत्मधर्म का अतिक्रमण करता है । अपने आत्मधर्म का अतिक्रमण करता हुआ (साधक) पृथ्वीकाय के जीवों की अपेक्षा नहीं करता, और यावत्-त्रसकाय के जीवों की चिन्ता नहीं करता और जिन जीवों के शरीरों का वह भोग करता है, उन जीवों की भी चिन्ता नहीं करता । इस कारण हे गौतम ! आधाकर्मदोषयुक्त आहार भोगता हुआ (श्रमण) आयुकर्म को छोड़कर सात कर्मों की शिथिलबद्ध प्रकृतियों को गाढ़बन्धन बद्ध कर लेता है, यावत्-संसार में बार-बार परिभ्रमण करता है।
हे भगवन् ! प्रासुक और एषणीय आहारादि का उपभोग करने वाला श्रमणनिर्ग्रन्थ क्या बाँधता है ? यावत् किसका उपचय करता है? गौतम ! प्रासक और एषणीय आहारादि भोगने वाला श्रमणनिर्ग्रन्थ, आयकर्म को छोडकर सात कर्मों की दढबन्धन से बद्ध प्रकृतियों को शिथिल करता है । उसे संवृत अनगार के समान समझना चाहिए। विशेषता यह है कि आयुकर्म को कदाचित् बाँधता है और कदाचित् नहीं बाँधता । शेष उसी प्रकार समझना चाहिए; यावत् संसार को पार कर जाता है । भगवन् ! इसका क्या कारण है ? गौतम ! प्रासुक एषणीय आहारादि भोगने वाला श्रमणनिर्ग्रन्थ, अपने आत्मधर्म का उल्लंघन नहीं करता । वह पृथ्वीकाय के जीवों का जीवन चाहता है, यावत्त्रसकाय के जीवों का जीवन चाहता है और जिन जीवों का शरीर उसके उपभोग में आता है, उनका भी वह जीवन चाहता है। इस कारण से हे गौतम ! वह यावत्-संसार को पार कर जाता है। सूत्र-१०१
भगवन् ! क्या अस्थिर पदार्थ बदलता है और स्थिर पदार्थ नहीं बदलता ? क्या अस्थिर पदार्थ भंग होता है और स्थिर पदार्थ भंग नहीं होता ? क्या बाल शाश्वत है तथा बालत्व अशाश्वत है ? क्या पण्डित शाश्वत है और पण्डितत्व अशाश्वत है ? हाँ, गौतम ! अस्थिर पदार्थ बदलता है यावत् पण्डितत्व अशाश्वत है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-१- उद्देशक-१० सूत्र-१०२
भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं, यावत् इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं कि-जो चल रहा है, वह
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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