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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1' शतक/शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक उसके वे कर्म उदय में नहीं आए हैं, परन्तु उपशान्त हैं, वह पुरुष जीतता है । जिसने वीर्य विघातक कर्म बाँधे हैं, स्पर्श किए हैं, यावत् उसके वे कर्म उदय में आए हैं, परन्तु उपशान्त नहीं हैं, वह पुरुष पराजित होता है। अत एव हे गौतम! इस कारण सवीर्य पुरुष विजयी होता है और वीर्यहीन पुरुष पराजित होता है। सूत्र-९३
भगवन् ! क्या जीव सवीर्य है अथवा अवीर्य है ? गौतम ! जीव सवीर्य भी है अवीर्य भी है । भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं ? गौतम ! जीव दो प्रकार के हैं-संसारसमापन्नक और असंसारसमापन्नक । जो जीव
समापन्नक हैं. वे सिद्ध जीव हैं. वे अवीर्य हैं। जो जीव संसार-समापन्नक हैं. वे दो प्रकार के हैं. शैलेशी-प्रतिपन्न और अशैलेशीप्रतिपन्न । इनमें जो शैलेशीप्रतिपन्न हैं, वे लब्धिवीर्य की अपेक्षा सवीर्य हैं और करणवीर्य की अपेक्षा अवीर्य हैं । जो अशैलेशीप्रतिपन्न हैं वे लब्धिवीर्य की अपेक्षा सवीर्य हैं, किन्तु करणवीर्य की अपेक्षा सवीर्य भी हैं और अवीर्य भी हैं। इसलिए हे गौतम! जीव सवीर्य भी हैं और अवीर्य भी।
भगवन् ! क्या नारक जीव सवीर्य हैं या अवीर्य ? गौतम ! नारक जीव लब्धिवीर्य की अपेक्षा सवीर्य हैं और करणवीर्य की अपेक्षा सवीर्य भी हैं और अवीर्य भी हैं। भगवन् ! इसका क्या कारण है ? गौतम ! जिन नैरयिकों में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार पराक्रम हैं, वे नारक लब्धिवीर्य और करणवीर्य, दोनों से सवीर्य हैं, और जो नारक उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार-पराक्रम से रहित हैं, वे लब्धिवीर्य से सवीर्य हैं, किन्तु करणवीर्य से अवीर्य हैं। इसलिए हे गौतम ! इस कारण से पूर्वोक्त कथन किया गया है।
जिस प्रकार नैरयिकों के विषय में कथन किया गया है, उसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक तक के जीवों के लिए समझना चाहिए । मनुष्यों के विषय में सामान्य जीवों के समान समझना चाहिए, विशेषता यह है कि सिद्धों को छोड़ देना चाहिए । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में नैरयिकों के समान कथन समझना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-१ - उद्देशक-९ सूत्र-९४
भगवन् ! जीव किस प्रकार शीघ्र गुरुत्व को प्राप्त होते हैं ? गौतम ! प्राणातिपात से, मृषावाद से, अदत्ता-दान से, मैथुन से, परिग्रह से, क्रोध से, मान से, माया से, लोभ से, राग से, द्वेष से, कलह से, अभ्याख्यान से, पैशुन्य से, रतिअरति से, परपरिवाद से, मायामृषा से और मिथ्यादर्शनशल्य से; इस प्रकार हे गौतम ! (इन अठारह ही पापस्थानों का सेवन करने से) जीव शीघ्र गुरुत्व को प्राप्त होते हैं।
भगवन् ! जीव किस प्रकार शीघ्र लघुत्व को प्राप्त करते हैं ? गौतम ! प्राणातिपात से विरत होने से यावत् मिथ्यादर्शनशल्य से विरत होने से जीव शीघ्र लघुत्व को प्राप्त होते हैं । इस प्रकार जीव प्राणातिपात आदि पापों का सेवन करने से संसार को बढ़ाते हैं, दीर्घकालीन करते हैं, और बार-बार भव-भ्रमण करते हैं, तथा प्राणातिपाति आदि पापों से निवृत्त होने से जीव संसार को परिमित करते हैं, अल्पकालीन करते हैं, और संसार को लाँघ जाते हैं। उनमें से चार प्रशस्त हैं, और चार अप्रशस्त हैं। सूत्र - ९५
___ भगवन् ! क्या सातवाँ अवकाशान्तर गुरु है, अथवा वह लघु है, या गुरुलघु है, अथवा अगुरुलघु है ? गौतम! वह गुरु नहीं है, लघु नहीं है, गुरु-लघु नहीं है, किन्तु अगुरुलघु है । भगवन् ! सप्तम तनुवात क्या गुरु है, लघु है या गुरुलघु है अथवा अगुरुलघु है ? गौतम ! वह गुरु नहीं है, लघु नहीं है, किन्तु गुरु-लघु है; अगुरुलघु नहीं है । इस प्रकार सप्तम-घनवात, सप्तम घनोदधि और सप्तम पृथ्वी के विषय में भी जानना चाहिए। जैसा सातवें अवकाशान्तर के विषय में कहा है, वैसा ही सभी अवकाशान्तरों के विषय में समझना चाहिए । तनुवात के विषय में जैसा कहा है, वैसा ही सभी घनवात, घनोदधि, पृथ्वी, द्वीप, समुद्र और क्षेत्रों के विषय में भी जानना चाहिए।
भगवन् ! नारक जीव गुरु हैं, लघु हैं, गुरु-लघु हैं या अगुरुलघु हैं ? गौतम ! नारक जीव गुरु नहीं हैं, लघु नहीं,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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