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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक देखकर जागृत होती हैं । देवानुप्रिये ! तुमने भी इन चौदह महास्वप्नों में से एक महास्वप्न देखा है । हे देवी ! सचमुच तुमने एक उदार स्वप्न देखा है, जिसके फलस्वरूप तुम यावत् एक पुत्र को जन्म दोगी, यावत् जो या तो राज्याधिपति राजा होगा, अथवा भावितात्मा अनगार होगा । देवानुप्रिये ! तुमने एक उदार यावत् मंगल-कारक स्वप्न देखा है। इस प्रकार इष्ट, कान्त, प्रिय यावत् मधुर वचनों से उसी बात को दो-तीन बार कहकर उसकी प्रसन्नता में वृद्धि की।
तब बल राजा से उपर्युक्त अर्थ सूनकर एवं उस पर विचार करके प्रभावती देवी हर्षित एवं सन्तुष्ट हुई । यावत् हाथ जोड़कर बोली-देवानुप्रिय ! जैसा आप कहते हैं, वैसा ही यह है । यावत् इस प्रकार कहकर उसने स्वप्न के अर्थ को भलीभाँति स्वीकार किया और बल राजा की अनुमति प्राप्त होने पर वह अनेक प्रकार के मणिरत्नों की कारीगरी से निर्मित उस भद्रासन से यावत् उठी; शीघ्रता तथा चपलता से रहित यावत् हंसगति से जहाँ अपना भवन था, वहाँ आकर अपने भवन में प्रविष्ट हई । तदनन्तर प्रभावती देवी ने स्नान किया, शान्तिकर्म किया और फिर समस्त अलंकारों से विभूषित हई। वह अपने गर्भ का पालन करने लगी। अब उस गर्भ का पालन करने के लिए वह न तो अत्यन्त शीतल और न तो अत्यन्त उष्ण, न अत्यन्त तिक्त और न अत्यन्त कडुए, न अत्यन्त कसैले, न अत्यन्त खट्टे और न अत्यन्त मीठे पदार्थ खाती थी परन्तु ऋतु के योग्य सुखकारक भोजन आच्छादन, गन्ध एवं माला का सेवन करके गर्भ का पालन करती थी । वह गर्भ के लिए जो भी हित, परिमित, पथ्य तथा गर्भपोषक पदार्थ होता, उसे ग्रहण करती तथा उस देश और काल के अनुसार आहार करती थी तथा जब वह दोषों से रहित मृदु शय्या एवं आसनों से एकान्त शुभ या सुखद मनोनुकूल विहारभूमि में थी, तब प्रशस्त दोहद उत्पन्न हुए, वे पूर्ण हुए । उन दोहदों को सम्मानित किया गया । वे दोहद समाप्त हए, सम्पन्न हए । वह रोग, शोक, मोह, भय, परित्रास आदि से रहित होकर उस गर्भ को सुखपूर्वक वहन करने लगी।
इसके पश्चात् नौ महीने और साढ़े सात दिन परिपूर्ण होने पर प्रभावती देवी ने, सुकुमाल हाथ और पैर वाले, हीन अंगों से रहित, पाँचों इन्द्रियों से परिपूर्ण शरीर वाले तथा लक्षणव्यञ्जन और गुणों से युक्त यावत् चन्द्रमा के समान सौम्य आकृति वाले, कान्त, प्रियदर्शन एवं सुरूप पुत्र को जन्म दिया । पुत्र जन्म होने पर प्रभावती देवी की अंगपरिचारिकाएं प्रभावती देवी को प्रसूता जानकर बल राजा के पास आई, और हाथ जोड़कर उन्हें जय-विजय शब्दों से बधाया । फिर निवेदन किया-हे देवानुप्रिय ! प्रभावती देवी ने नौ महीने और साढ़े सात दिन पूर्ण होने पर यावत् सुरूप बालक को जन्म दिया है । अतः देवानुप्रिय की प्रीति के लिए हम यह प्रिय समाचार निवेदन करती हैं। यह आपके लिए प्रिय हो । यह प्रिय समाचार सूनकर एवं हृदय में धारण कर बल राजा हर्षित एवं सन्तुष्ट हुआ; यावत् मेघ की धारा से सिंचित कदम्बपुष्प के समान उसके रोमकूप विकसित हो गए । बल राजा ने अपने मुकुट को छोड़कर धारण किए हुए शेष सभी आभरण उन अंगपरिचारिकाओं को दे दिए । फिर सफेद चाँदी का निर्मल जल से भरा हुआ कलश लेकर उन दासियों का मस्तक धोया । उनका सत्कार-सम्मान किया और उन्हें बिदा किया। सूत्र - ५२१
इसके पश्चात् बल राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उन्हें इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो ! हस्तिना-पुर नगर में शीघ्र ही चारक-शोधन अर्थात्-बन्दियों का विमोचन करो, और मान तथा उन्मान में वृद्धि करो । फिर हस्तिनापुर नगर के बाहर और भीतर छिड़काव करो, सफाई करो और लीप-पोत कर शुद्धि (यावत्) करो-कराओ। तत्पश्चात् यूप सहस्त्र और चक्रसहस्त्र की पूजा, महामहिमा और सत्कारपूर्वक उत्सव करो । मेरे इस आदेशानुसार कार्य करके मुझे पुनः निवेदन करो। तदनन्तर बल राजा के उपर्युक्त आदेशानुसार यावत् कार्य करके उन कौटुम्बिक पुरुषों ने आज्ञानुसार कार्य हो जाने का निवेदन किया।
तत्पश्चात् बल राजा व्यायामशाला में गए । व्यायाम किया, इत्यादि वर्णन पूर्ववत्, यावत् बल राजा स्नानगृह से नीकले । प्रजा से शुल्क तथा कर लेना बन्द कर दिया, भूमि के कर्षण-जोतने का निषेध कर दिया, क्रय, विक्रय का निषेध कर देने से किसी को कुछ मूल्य देना, या नाप-तौल करना न रहा । कुटुम्बिकों के घरों में सुभटों का प्रवेश बन्द करा दिया। राजदण्ड से प्राप्य दण्ड द्रव्य तथा अपराधीयों को दिए गए कुदण्ड से प्राप्य द्रव्य लेने का निषेध कर दिया
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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