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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/सूत्रांक सूत्र- ५१८, ५१९
भगवन् ! क्या इन पल्योपम और सागरोपम का क्षय या अपचय होता है ? हाँ, सुदर्शन ! होता है । भगवन् ऐसा किस कारण से कहते हैं ? हे सुदर्शन ! उस काल और उस समय में हस्तिनापुर नामक नगर था । वहाँ सहस्राम्रवन नामक उद्यान था । उस हस्तिनापुर में बल नामक राजा था । उस बल राजा की प्रभावती नामकी देवी (पटरानी) थी। उसके हाथ-पैर सुकुमाल थे, यावत् पंचेन्द्रिय संबंधी सुखानुभव करती हुई जीवनयापन करती थी।
किसी दिन प्रभावती देवी उस प्रकार के वासगृह के भीतर, उस प्रकार की अनुपम शय्या पर (सोई हुई थी।) (वह वासगृह) भीतर से चित्रकर्म से युक्त तथा बाहर से सफेद किया हुआ, एवं घिसकर चिकना बनाया हुआ था । जिसका ऊपरी भाग विविध चित्रों से युक्त तथा अधोभाग प्रकाश से देदीप्यमान था । मणियों और रत्नों के कारण उसका अन्धकार नष्ट हो गया था । उसका भूभाग बहुत सम और सुविभक्त था । पाँच वर्ण के सरस और सुगन्धित पुष्पपुंजों के उपचार से युक्त था । उत्तम कालागुरु, कुन्दरुक और तुरुष्क के धूप से वह वासभवन चारों ओर से महक रहा था। उसकी सुगन्ध से वह अभिराम तथा सुगन्धित पदार्थों से सुवासित था । एक तरह से वह सुगन्धित द्रव्य की गुटिका के जैसा हो रहा था । ऐसे आवासभवन में जो शय्या थी, वह अपने आप में अद्वीतिय थी तथा शरीर से स्पर्श करते हुए पार्श्ववर्ती तकिये से युक्त थी। फिर उसके दोनों और तकिये रखे हुए थे। वह दोनों ओर से उन्नत थी, बीच में कुछ झुकी हुई एवं गहरी थी, एवं गंगा नदी के तटवर्ती बालू पैर रखते ही नीचे धस जाने के समान थी। वह मुलायम बनाए हुए रेशमी दुकूलपट से आच्छादित तथा सुन्दर सुरचित रजस्राण से युक्त थी । लाल रंग के सूक्ष्म वस्त्र की मच्छरदानी उस पर लगी हुई थी। वह सुरम्य आजिनक, रूई, बूर, नवनीत तथा अर्कतूल के समान कोमल स्पर्श वाली थी; तथा सुगन्धित श्रेष्ठपुरुष चूर्ण एवं शयनोपचार से युक्त थी।
___ ऐसी शय्या पर सोती हुई प्रभावती रानी, जब अर्धरात्रिकाल के समय कुछ सोती-कुछ जागती अर्धनिद्रित अवस्था में थी, तब स्वप्न में इस प्रकार का उदार, कल्याणरूप, शिव, धन्य, मंगलकारक एवं शोभायुक्त महास्वप्न देखा
और जागृत हुई । प्रभावती रानी ने स्वप्न में एक सिंह देखा, जो हार, रजत, क्षीरसमुद्र, चन्द्रकिरण, जलकण, रजतमहाशैल के समान श्वेत वर्ण वाला था, वह विशाल, रमणीय और दर्शनीय था । उसके प्रकोष्ठ स्थिर और सुन्दर थे वह अपने गोल, पुष्ट, सुश्लिष्ट, विशिष्ट और तीक्ष्ण दाढ़ाओं से युक्त मुँह को फाड़े हुए था । उसके ओष्ठ संस्का-रित जातिमान् कमल के समान कोमल, प्रमाणोपेत एवं अत्यन्त सुशोभित थे । उसका तालु और जीभ रक्तकमल के पत्ते के समान अत्यन्त कोमल थी। उसके नेत्र, मूस में रहे हुए एवं अग्नि में तपाये हुए तथा आवर्त करते हए उत्तम स्वर्ण के समान वर्ण वाले, गोल एवं विद्युत के समान विमल (चमकीले) थे । उसकी जंघा विशाल एवं पुष्ट थी। उसके स्कन्ध परिपूर्ण और विपुल थे। वह मृदु, विशद, सूक्ष्म एवं प्रशस्त लक्षण वाली विस्तीर्ण केसर के जटा से सुशोभित था । वह सिंह अपनी सुनिर्मित, सुन्दर एवं उन्नत पूँछ को फटकारता हुआ, सौम्य आकृति वाला, लीला करता हुआ, जंभाई लेता हुआ, गगनतल से उतरता हुआ तथा अपने मुख-कमल-सरोवर में प्रवेश करता हुआ दिखाई दिया । स्वप्न में ऐसे सिंह को देखकर रानी जागृत हुई।
तदनन्तर वह प्रभावती रानी इस प्रकार के उस उदार यावत् शोभायुक्त महास्वप्न को देखकर जागृत होते ही अत्यन्त हर्षित एवं सन्तुष्ट हुई; यावत् मेघ की धारा से विकसित कदम्बपुष्प के समान रोमांचित होती हुई उस स्वप्न का स्मरण करने लगी। फिर वह अपनी शय्या से उठी और शीघ्रता से रहित तथा अचपल, असम्भ्रमित एवं अवि-लम्बित अत एव राजहंस सरीखी गति से चलकर जहाँ बल राजा की शय्या थी, वहाँ आई और उन्हें उन इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनाम, उदार, कल्याणरूप, शिव, धन्य, मंगलमय तथा शोभायुक्त परिमित, मधुर एवं मंजुल वचनों से जगाने लगी। राजा जागृत हुआ । राजा की आज्ञा होने पर रानी विचित्र मणि और रत्नों की रचना से चित्रित भद्रासन पर बैठी । और उत्तम सुखासन से बैठकर आश्वस्त और विश्वस्त हुई । रानी प्रभावती, बल राजा से इष्ट, कान्त यावत् मधुर वचनों से बोली- हे देवानुप्रिय! आज मैं सो रही थी, तब मैंने यावत् अपने मुख में प्रविष्ट होते हुए सिंह को स्वप्न में देखा और मैं जाग्रत हुई हूँ। तो हे देवानुप्रिय ! मुझे इस उदार यावत् महास्वप्न का क्या कल्याणरूप फल विशेष होगा?
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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