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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/सूत्रांक को प्राप्त होने पर दीक्षा लेना, किन्तु माताजी और पिताजी ! यह निश्चित है कि ये मनुष्य-सम्बन्धी कामभोगो, मल, मूत्र, श्लेषम, सिंघाण, वमन, पित्त, पूति, शुक्र और शोणित से उत्पन्न होते है, ये अमनोज्ञ और असुन्दर मूत्र तथा दुर्गन्धयुक्त विष्ठा से परिपूर्ण है; मृत कलेवर के समान गन्ध वाले उच्छवास एवं अशुभ निःश्वास से युक्त होने से उद्वेग पैदा करने वाले है । ये बीभत्स है, अल्पकालस्थायी है, तुच्छस्वभाव के है, कलमल के स्थानरूप होने से दुःखरूप है और बहु-जनसमुदाय के लिए भोग्यरूप से साधारण है, ये अत्यन्त मानसिक क्लेश से तथा गाढ शारीरिक कष्ट से साध्य है । ये अज्ञानी जनो द्वारा ही सेवित है, साधु पुरुषो द्वारा सदैव निन्दनीय है, अनन्त संसार की वृद्धि करने वाले है, परिणाम में कटु फल वाले है, जलते हुए घास के पूले की आग के समान कठिनता से छूटने वाले तथा दुःखानुबन्धी है, सिद्धि गमन में विघ्नरूप है । अतः हे माता-पिता ! यह भी कौन जानता है कि हममे से कौन पहले जाएगा, कौन पीछे ? इसलिए हे आपकी आज्ञा प्राप्त होने पर मै दीक्षा लेना चाहता हूं।
तदनन्तर क्षत्रियकुमार जमालि से उसके माता-पिता ने इस प्रकार कहा- हे पुत्र ! तेरे पितामह, प्रपितामह और पिता के प्रपितामह से प्राप्त यह बहत-सा हिरण्य, सुवर्ण, कांस्य उत्तम वस्त्र, विपुल धन, कनक यावत सारभ द्रव्य विद्यमान है । यह द्रव्य इतना है कि सात पीढी तक प्रचुर दान दिया जाय, पुष्कल भोगा जाय और बहुत-सा बांटा जाय, तो भी पर्याप्त है । अतः हे पुत्र ! मनुष्य-सम्बन्धी इस विपुल ऋद्धि और सत्कार समुदाय का अनुभव कर । फिर इस कल्याण का अनुभव करके और कुलवंशतन्तु की वृद्धि करने के पश्चात यावत् तू प्रव्रजित हो जाना । इस पर क्षत्रियकुमार जमालि ने अपने माता-पिता से कहा-आपने जो यह कहा कि तेरे पितामह, प्रपितामह आदि से प्राप्त द्रव्य के दान, भोग आदि के पश्चात यावत् प्रव्रज्या ग्रहण करना आदि, किन्तु हे माता-पिता ! यह हिरण्य, सुवर्ण यावत् सारभूत द्रव्य अग्नि-साधारण, चोर-साधारण, राज-साधारण, मृत्यु-साधारण, एवं दायाद-साधारण है, तथा अग्निसामान्य यावत् दायाद-सामान्य है । यह अध्रुव है, अनित्य है और अशाश्वत है । इसे पहले या पीछे एक दिन अवश्य छोड़ना पड़ेगा। अतः कौन जानता है कि कौन पहले जाएगा और कौन पीछे जाएगा? इत्यादि पूर्ववत् कथन, यावत् आपकी आज्ञा प्राप्त हो जाए तो मेरी दीक्षा ग्रहण करने की इच्छा है।
जब क्षत्रियकुमार जमालि को उसके माता-पिता विषय के अनुकूल बहुत-सी उक्तियों प्रज्ञप्तियों, संज्ञाप्तियों और विज्ञप्तियों द्वारा कहने, बतलाने और समझाने-बुझाने में समर्थ नहीं हुए, तब विषय के प्रतिकूल तथा संयम के प्रति भय और उद्गग उत्पन्न करने वाली उक्तियों से समझाते हुए इस प्रकार कहने लगे-हे पुत्र ! यह निर्ग्रन्थप्रवचन सत्य, अनुत्तर, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करने वाला है। इसमें तत्पर जीव सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होते हैं, निर्वाण प्राप्त करते हैं एवं समस्त दुःखों का अन्त करते है। परन्तु यह (निर्ग्रन्थधर्म) सर्प की तरह एकान्त दृष्टि वाला है, छुरे या खड्ग
तीक्ष्ण शस्त्र की तरह एकान्त धार वाला है। यह लोहे के चने चबाने के समान दुष्कर है; बालु के कौर की तरह स्वादरहित (नीस्स) है। गंगा आदि महानदीके प्रतिस्त्रोत गमन के समान अथवा भुजाओं से महासमुद्र तैरने के सामने पालन करने में अतीव कठिन है । तीक्ष्ण धार पर चलना है; महाशिला को उठाने के सामने गुरुतर भार उठाना है । तलवार की तीक्ष्ण धार पर चलने के समान व्रत का आचरण करना है । हे पुत्र ! निर्ग्रन्थ श्रमणों के लिए ये बातें कल्पनीय नहीं हैं । यथा-आधाकर्मिक, औद्देशिक, मिश्रजात, अध्यवपूरक, पूतिक, क्रीत, प्रामित्य, अछेद्य, अनिसृष्ट, अभ्याहृत, कान्तारभक्त, दुर्भिक्षभक्त, ग्लानभक्त, वर्दलिकाभक्त, शय्यातरपिण्ड और राजपिण्ड । इसी प्रकार मूल, कन्द, फल, बीज और हरित-भोजन करना या पीना भी उसके लिए अकल्पनीय है । हे पुत्र ! तू सुख में पला, सुख भोगने योग्य है, दुःख सहन करने योग्य नहीं है । तू शीत, उष्ण, क्षुधा, पिपासा को तथा चोर, व्याल, डांस, मच्छरों के उपद्रव को एवं वात, तित्त, कफ एवं सन्निपात सम्बन्धी अनके रोगों के आतंक को और उदय भी आए हुए परीषहों एवं उपसर्गो को सहन करने में समर्थ नहीं है । हे पुत्र ! हम तो क्षणभर में तेरा वियोग सहन करना नहीं है । हे पुत्र ! हम तो क्षणभर में तेरा वियोग सहन करना नहीं चाहते । अतः पुत्र ! जब तक हम जीवित हैं, तब तक तूगृहस्थवास में रह । उसके बाद हमारे कालगत हो जाने पर, यावत् प्रव्रज्या ग्रहण कर लेना।
तब क्षत्रियकुमार जमालि ने माता-पिता को उत्तर देते हुए प्रकार कहा-हे माता-पिता ! आप मुझे यह जो
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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