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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक /उद्देशक/ सूत्रांक कल्पातीत-वैमानिकदेव-कर्म-आशीविष हैं ? गौतम ! कल्पोपपन्नक-वैमानिकदेव-कर्म-आशीविष होता है, किन्तु कल्पातीत-वैमानिकदेव-कर्म-आशीविष नहीं होता । भगवन् ! यदि कल्पोपपन्नक-वैमानिकदेव-कर्म-आशीविष होता है तो क्या सौधर्म-कल्पोपपन्नक-वैमानिकदेव-कर्म-आशीविष होता है, यावत् अच्युत-कल्पोपपन्नक । गौतम ! सौधर्मकल्पोपपन्नक-वैमानिकदेव से सहस्रार-कल्पोपपन्नक-वैमानिकदेव-पर्यन्त कर्म-आशीविष होते हैं, परन्तु आनत, प्राणत, आरण और अच्युत-कल्पोपपन्नक-वैमानिककर्म-आशीविष नहीं होते । भगवन् ! यदि सौधर्म-कल्पो पपन्नकवैमानिकदेव-कर्म-आशीविष हैं तो क्या पर्याप्त सौधर्म-कल्पोपपन्न-वैमानिकदेव-कर्म-आशीविष है अथवा अपर्याप्त ? गौतम ! पर्याप्त सौधर्म-कल्पोपपन्न-वैमानिकदेव-कर्म-आशीविष नहीं, परन्तु अपर्याप्त सौधर्म-कल्पोपपन्न-कर्मआशीविष हैं । इसी प्रकार यावत् पर्याप्त सहस्रार-कल्पोपपन्न-वैमानिकदेव-कर्म-आशीविष नहीं, किन्तु अपर्याप्त सहस्रार-कल्पोपपन्नक-वैमानिकदेव-कर्म-आशीविष हैं। सूत्र - ३९०
छद्मस्थ पुरुष इन दस स्थानों को सर्वभाव से नहीं जानता और नहीं देखता । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्ति-काय, आकाशास्तिकाय, शरीर से रहित जीव, परमाणुपुद्गल, शब्द, गन्ध, वायु, यह जीव जिन होगा या नहीं? तथा यह जीव सभी दुःखों का अन्त करेगा या नहीं? इन्हीं दस स्थानों को उत्पन्न (केवल) ज्ञान-दर्शन के धारक अरिहन्तजिनकेवली सर्वभाव से जानते और देखते हैं। सूत्र-३९१
भगवन् ! ज्ञान कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! पाँच प्रकार का आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान । भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञान कितने प्रकार का है ? गौतम ! चार प्रकार का । अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । राजप्रश्नीयसूत्र में ज्ञानों के भेद के कथनानुसार यह है वह केवल-ज्ञान; यहाँ तक कहना चाहिए।
भगवन् ! अज्ञान कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! तीन प्रकार का-मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभंगज्ञान । भगवन् ! मति-अज्ञान कितने प्रकार का है ? गौतम ! चार प्रकार का अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। भगवन् ! यह अवग्रह कितने प्रकार का है ? गौतम ! दो प्रकार का अर्थावग्रह और व्यञ्जनावग्रह । जिस प्रकार (नन्दीसूत्र में) आभिनिबोधिकज्ञान के विषय में कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी जान लेना चाहिए । विशेष इतना ही है कि वहाँ आभिनिबोधिकज्ञान के प्रकरण में अवग्रह आदि के एकार्थिक शब्द कहे हैं, उन्हें छोड़कर यह नोइन्द्रिय-धारणा है तक कहना । भगवन् ! श्रुत-अज्ञान किस प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! जिस प्रकार नन्दीसूत्र में कहा गया हैजो अज्ञानी मिथ्यादृष्टियों द्वारा प्ररूपित है इत्यादि यावत्-सांगोपांग चार वेद श्रुत-अज्ञान है । इस प्रकार श्रुत-अज्ञान का वर्णन पूर्ण हुआ।
भगवन् ! विभंगज्ञान किस प्रकार का है ? अनेक प्रकार का है । -ग्रामसंस्थित, नगरसंस्थित यावत् सन्निवेशसंस्थित, द्वीपसंस्थित, समुद्रसंस्थित, वर्ष-संस्थित, वर्षधरसंस्थित, सामान्य पर्वत-संस्थित, वृक्षसंस्थित, स्तूपसंस्थित, हयसंस्थित, गजसंस्थित, नरसंस्थित, किन्नरसंस्थित, किम्पुरुषसंस्थित, महोरगसंस्थित, गन्धर्वसंस्थित, वृषभसंस्थित, पशु, पशय, विहग और वानर के आकार वाला है। इस प्रकार विभंगज्ञान नाना संस्थानसंस्थित है।
भगवन् ! जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? गौतम ! जीव ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं । जो जीव ज्ञानी हैं, उनमें से कुछ जीव दो ज्ञान वाले हैं, कुछ जीव तीन ज्ञान वाले हैं, कुछ जीव चार ज्ञान वाले हैं और कुछ जीव एक ज्ञान वाले हैं । जो दो ज्ञान वाले हैं, वे मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी होते हैं, जो तीन ज्ञान वाले हैं, वे आभिनिबोधिक-ज्ञानी, श्रुतज्ञानी
और अवधिज्ञानी हैं, अथवा आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और मनःपर्यवज्ञानी होते हैं । जो चार ज्ञान वाले हैं, वे आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्यवज्ञानी हैं । जो एक ज्ञान वाले हैं, वे नियमतः केवलज्ञानी हैं
जो जीव अज्ञानी हैं, उनमें से कुछ जीव दो अज्ञानवाले हैं, कुछ तीन अज्ञानवाले हैं । जो जीव दो अज्ञान वाले हैं, वे मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी हैं; जो जीव तीन अज्ञानवाले हैं, वे मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी, विभंगज्ञानी हैं
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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