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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/शतकशतक/उद्देशक/सूत्रांक उनसे मिश्रपरिणत पुद्गल अनन्तगुणे और उनसे विस्रसापरिणत पुद्गल अनन्तगुणे हैं। भगवन् ! यह इसी प्रकार है
शतक-८ - उद्देशक-२ सूत्र-३८९
भगवन् ! आशीविष कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! दो प्रकार के हैं । जाति-आशीविष और कर्म-आशीविष भगवन् ! जाति-आशीविष कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! चार प्रकार के जैसे-वृश्चिकजाति-आशीविष, मण्डूक-जातिआशीविष, उरगजाति-आशीविष और मनुष्यजाति-आशीविष । भगवन् ! वृश्चिकजाति-आशीविष का कितना विषय है ? गौतम ! वह अर्द्धभरतक्षेत्र-प्रमाण शरीर को विषयुक्त-या विष से व्याप्त करने में समर्थ हैं । इतना उसके विष का सामर्थ्य है, किन्तु सम्प्राप्ति द्वारा उसने न ऐसा कभी किया है, न करता है और न कभी करेगा। भगवन् ! मण्डूकजातिआशीविष का कितना विषय है ? गौतम ! वह अपने विष से भरतक्षेत्र-प्रमाण शरीर को विषैला करने एवं व्याप्त करने में समर्थ है । शेष सब पूर्ववत् जानना, यावत् सम्प्राप्ति से उसने कभी ऐसा किया नहीं, करता नहीं और करेगा भी नहीं। इसी प्रकार उरगजाति-आशीविष के सम्बन्ध में जानना । इतना विशेष है कि वह जम्बूद्वीप-प्रमाण शरीर को विष से युक्त एवं व्याप्त करने में समर्थ है । यह उसका सामर्थ्यमात्र है, किन्तु सम्प्राप्ति से यावत् करेगा भी नहीं । इसी प्रकार मनुष्यजाति-आशीविष के सम्बन्ध में भी जानना । विशेष इतना है कि वह समयक्षेत्र प्रमाण शरीर को विष से व्याप्त कर सकता है, शेष कथन पूर्ववत्, यावत्, करेगा भी नहीं।
भगवन! यदि कर्म-आशीविष है तो क्या वह नैरयिक-कर्म-आशीविष है.या तिर्यंचयोनिक, अथवा मनष्य या देव-कर्म-आशीविष है ? गौतम ! नैरयिक-कर्म-आशीविष नहीं, किन्तु तिर्यंचयोनिक-कर्म-आशीविष है, मनुष्य-कर्मआशीविष है और देव-कर्म-आशीविष है । भगवन् ! यदि तिर्यंचयोनिक-कर्म-आशीविष है, तो क्या एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक-कर्म-आशीविष है ? गौतम ! एकेन्द्रिय, यावत् चतुरिन्द्रिय कर्म-आशीविष नहीं, परन्तु पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक-कर्म-आशीविष है । भगवन ! यदि पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक-कर्म-आशीविष है तो क्या सम्मूर्छिम है या गर्भज-पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक-कर्म-आशीविष है ? गौतम ! वैक्रिय शरीर के सम्बन्ध के समान पर्याप्त संख्यातवर्ष की आयुष्य वाला गर्भज-कर्मभूमिज-पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक-कर्म-आशीविष होता है; परन्तु अपर्याप्त संख्यात वर्ष के आयुष्य वाला कर्मआशीविष नहीं होता तक कहना । भगवन् ! यदि मनुष्य-कर्म-आशीविष है, तो क्या सम्मूर्छिम-मनुष्य-कर्माशीविष है, या गर्भज मनुष्य-कर्म-आशीविष है ? गौतम ! सम्मूर्च्छिम-मनुष्य-कर्मआशीविष नहीं होता, किन्तु गर्भज-मनुष्यकर्म-आशीविष होता है । प्रज्ञापनासूत्र के शरीरपद में वैक्रिय-शरीर के सम्बन्ध के अनुसार यहाँ भी पर्याप्त संख्यात वर्ष का आयुष्य वाला कर्मभूमिज गर्भज मनुष्य-कर्म-आशीविष होता है; परन्तु अपर्याप्त यावत् कर्म-आशीविष नहीं होता तक कहना।
भगवन् ! यदि देव-कर्माशीविष होता है, तो क्या भवनवासीदेव-कर्माशीविष होता है यावत् वैमानिकदेव-कर्मआशीविष होता है ? गौतम ! भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक, ये चारों प्रकार के देव-कर्म-आशीविष होते हैं । भगवन् ! यदि भवनवासीदेव-कर्म-आशीविष होता है तो क्या असुरकुमारभवनवासीदेव-कर्म-आशीविष होता है यावत् स्तनितकुमार-भवनवासीदेव-कर्म-आशीविष होता है ? गौतम ! असुरकुमार-भवनवासी-देव यावत् स्तनितकुमार-कर्म-आशीविष भी होता है । भगवन् ! यदि असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार-भवनवासी-देव-कर्मआशीविष है तो क्या पर्याप्त असरकमारादि भवनवासीदेव-कर्म-आशीविष है या अपर्याप्त हैं ? गौतम ! पर्याप्त असुरकुमार-भवनवासीदेव-कर्म-आशीविष नहीं, परन्तु अपर्याप्त असुरकुमार-भवनवासीदेव-कर्म-आशीविष है। इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक जानना चाहिए।
भगवन् ! यदि वाणव्यन्तरदेव-कर्म-आशीविष हैं, तो क्या पिशाच-वाणव्यन्तरदेव-कर्माशीविष है, अथवा यावत् गन्धर्व-वाणव्यन्तरदेव-कर्माशीविष हैं ? गौतम ! वे पिशाचादि सर्व वाणव्यन्तरदेव अपर्याप्तावस्था में कर्माशीविष हैं।
इसी प्रकार सभी ज्योतिष्कदेव भी अपर्याप्तावस्था में कर्माशीविष होते हैं। भगवन् ! यदि वैमानिकदेव-कर्माशीविष है तो क्या कल्पोपपन्नक-वैमानिकदेव-कर्माशीविष हैं, अथवा
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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