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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक होने पर, भव-क्षय होने पर तथा स्थिति-क्षय होने पर कहाँ जाएगा, कहाँ उत्पन्न होगा? गौतम ! वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगा, यावत् सभी दुःखों का अन्त करेगा।
भगवन् ! वरुण नागनप्तृक का प्रिय बालमित्र कालधर्म पाकर कहाँ गया ?, कहाँ उत्पन्न हुआ ? गौतम ! वह सुकुल में उत्पन्न हुआ है । भगवन् ! वह वहाँ से काल करके कहाँ जाएगा? कहाँ उत्पन्न होगा ? गौतम ! वह भी महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगा, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करेगा। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-७ - उद्देशक-१० सूत्र - ३७७
उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था । वहाँ गुणशीलक नामक चैत्य था यावत् (एक) पृथ्वी शिलापट्टक था । उस गुणशीलक चैत्य के पास थोड़ी दूर पर बहुत से अन्यतीर्थि रहते थे, यथा-कालोदयी, शैलोदाई शैवालोदायी, उदय, नामोदय, नर्मोदय, अन्नपालक, शैलपालक, शंखपालक और सुहस्ती गृहपति ।
किसी समय सब अन्यतीर्थिक एक स्थान पर आए, एकत्रित हुए और सुखपूर्वक भलीभाँति बैठे । फिर उनमें परस्पर इस प्रकार का वार्तालाप प्रारम्भ हुआ- ऐसा (सूना) है कि श्रमण ज्ञातपुत्र पाँच अस्तिकायों का निरूपण करते हैं, यथा-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय । इनमें से चार अस्तिकायों को श्रमण ज्ञातपुत्र अजीव-काय बताते हैं । धर्मास्तिकाय यावत् पुद्गलास्तिकाय । एक जीवास्तिकाय को श्रमण ज्ञातपुत्र अरूपी और जीवकाय बतलाते हैं । उन पाँच अस्तिकायों में से चार अस्तिकायों को श्रमण ज्ञातपुत्र अरूपीकाय बतलाते हैं । धर्मास्तिकाय, यावत् जीवास्तिकाय । एक पुद्गलास्तिकाय को ही श्रमण ज्ञातपुत्र रूपीकाय और अजीवकाय कहते हैं। उनकी यह बात कैसे मानी जाए?
उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर यावत् गुणशील चैत्य में पधारे, वहाँ उनका समवसरण लगा । यावत् परीषद् (धर्मोपदेश सूनकर) वापिस चली गई। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतमगोत्रीय इन्द्रभूति नामक अनगार, दूसरे शतक के निर्ग्रन्थ उद्देशक में कहे अनुसार भिक्षाचारी के लिए पर्यटन करते हुए यथापर्याप्त आहार-पानी ग्रहण करके राजगृह नगर से यावत्, त्वरारहित, चपलतारहित, सम्भ्रान्ततारहित, यावत् ईर्यासमिति का शोधन करते-करते अन्यतीर्थिकों के पास से होकर नीकले । तत्पश्चात् उन अन्यतीर्थिकों ने भगवान गौतम को थोड़ी दूर से जाते हुए देखा । देखकर उन्होंने एक-दूसरे को बुलाया । बुलाकर एक-दूसरे से इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! बात ऐसी है कि (पंचास्तिकाय सम्बन्धी) यह बात हमारे लिए-अज्ञात है । यह गौतम हमसे थोड़ी ही दूर पर जा रहे हैं । इसलिए हे देवानुप्रियो ! हमारे लिए गौतम से यह अर्थ पूछना श्रेयस्कर है, ऐसा विचार करके उन्होंने परस्पर इस सम्बन्ध में परामर्श किया । जहाँ भगवान गौतम थे, वहाँ उनके पास आए। उन्होंने भगवान गौतम से इस प्रकार पूछा
हे गौतम ! तुम्हारे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्र पंच अस्तिकाय की प्ररूपणा करते हैं, जैसेधर्मास्तिकाय यावत् आकाशास्तिकाय । यावत् एक पुद्गलास्तिकाय को ही श्रमण ज्ञातपुत्र रूपीकाय और अजीव काय कहते हैं; यहाँ तक अपनी सारी चर्चा उन्होंने गौतम से कही । हे भदन्त गौतम ! यह बात ऐसे कैसे है ? इस पर भगवान गौतम ने उन अन्यतीर्थिकों से कहा- हे देवानुप्रियो ! हम अस्तिभाव को नास्ति, ऐसा नहीं कहते, इसी प्रकार नास्तिभाव को अस्ति ऐसा नहीं कहते । हे देवानुप्रियो ! हम सभी अस्तिभावों को अस्ति, ऐसा कहते हैं और समस्त
को नास्ति, ऐसा कहते हैं । अतः हे देवानुप्रियो ! आप स्वयं अपने ज्ञान से इस बात पर चिन्तन करीए। जैसा भगवान बतलाते हैं, वैसा ही है । इस प्रकार कहकर श्री गौतमस्वामी गुणशीलक चैत्य में जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, वहाँ उनके पास आए और द्वीतिय शतक के निर्ग्रन्थ उद्देशक में बताये अनुसार यावत् आहारपानी भगवान को दिखलाया । श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दन-नमस्कार करके उनसे न बहुत दूर और न बहुत निकट रहकर यावत् उपासना करने लगे।
उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर-प्रतिपन्न थे । उसी समय कालोदयी उस स्थल में आ
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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