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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक दाँत पीसते हुए अपना धनुष उठाया । फिर बाण उठाया फिर धनुष पर यथास्थान बाण चढ़ाया । फिर अमुक आसन से अमुक स्थान पर स्थित होकर धनुष को कान तक खींचा । ऐसा करके उसने वरुण नागनप्तक पर गाढ प्रहार किया। गाढ़ प्रहार से घायल हुए वरुण नागनप्तृक ने शीघ्र कुपित होकर यावत् मिसमिसाते हुए धनुष उठाया। फिर उस पर बाण चढ़ाया और उस बाण को कान तक खींचकर उस पुरुष पर छोड़ा । जैसे एक ही जोरदार चोट से पत्थर के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं, उसी प्रकार वरुण नागनप्तृक ने एक ही गाढ़ प्रहार से उस पुरुष को जीवन से रहित कर दिया
उस पुरुष के गाढ़ प्रहार से सख्त घायल हुआ वरुण नागनप्तृक अशक्त, अबल, अवीर्य, पुरुषार्थ एवं पराक्रम से रहित हो गया । अतः अब मेरा शरीर टिक नहीं सकेगा ऐसा समझकर उसने घोड़ों को रोका, रथ को वापिस फिराया और रथमूसलसंग्राम स्थल से बाहर नीकल गया । एकान्त स्थान में आकर रथ को खड़ा किया । फिर रथ से नीचे ऊतरकर उसने घोड़ों को छोड़कर विसर्जित कर दिया। फिर दर्भ का संथारा बिछाया और पूर्व दिशा की ओर मुँह करके दर्भ के संस्तारक पर पर्यकासन से बैठा और दोनों हाथ जोड़कर यावत् कहा-अरिहन्त भगवंतों को, यावत् जो सिद्धगति को प्राप्त हुए हैं, नमस्कार हो । मेरे धर्मगुरु, धर्माचार्य श्रमण भगवान महावीर को नमस्कार हो, जो धर्म की आदि करने वाले यावत् सिद्धगति प्राप्त करने के ईच्छुक हैं । यहाँ रहा हुआ मैं वहाँ रहे हुए भगवान को वन्दन करता हूँ। वहाँ रहे हुए भगवान मुझे देखें । इत्यादि कहकर यावत् वन्दन-नमस्कार करके कहा
पहले मैंने श्रमण भगवान महावीर के पास स्थूल प्राणातिपात का, यावत् स्थूल परिग्रह का जीवनपर्यन्त के लिए प्रत्याख्यान किया था, किन्तु अब मैं उन्हीं अरिहन्त भगवान महावीर के पास (साक्षी से) सर्व प्राणातिपात का जीवनपर्यन्त के लिए प्रत्याख्यान करता हूँ । इस प्रकार स्कन्दक की तरह (अठारह ही पापस्थानों का सर्वथा प्रत्याख्यान कर दिया ।) फिर इस शरीर का भी अन्तिम श्वासोच्छ्वास के साथ व्युत्सर्ग करता हूँ, यों कहकर उसने कवच खोल दिया । लगे हए बाण को बाहर खींचा । उसने आलोचना की, प्रतिक्रमण किया और समाधियुक्त होकर मरण प्राप्त किया।
उस वरुण नागनप्तृक का एक प्रिय बालमित्र भी रथमूलसंग्राम में युद्ध कर रहा था । वह भी एक पुरुष द्वारा प्रबल प्रहार करने से घायल हो गया। इससे अशक्त, अबल, यावत् पुरुषार्थ-पराक्रम से रहित बने हुए उसने सोचाअब मेरा शरीर टिक नहीं सकेगा । जब उसने वरुण नागनप्तृक को रथमूसलसंग्राम-स्थल से बाहर नीकलते हुए देखा, तो वह भी अपने रथ को वापिस फिराकर रथमूसलसंग्राम से बाहर नीकला, घोड़ों को रोका और जहाँ वरुण नागनप्तृक ने घोड़ों को रथ से खोलकर विसर्जित किया था, वहाँ उसने भी घोड़ों को विसर्जित कर दिया। फिर दर्भ के संस्तारक को बिछाकर उस पर बैठा । दर्भसंस्तारक पर बैठकर पूर्वदिशा की ओर मुख करके यावत् दोनों हाथ जोड़कर यों बोला-भगवन् ! मेरे प्रिय बालमित्र वरुण नागनप्तृक के जो शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान
और पौषधोपवास हैं, वे सब मेरे भी हों, इस प्रकार कहकर उसने कवच खोला । शरीर में लगे हुए बाण को बाहर नीकाला । वह भी क्रमशः समाधियुक्त होकर कालधर्म को प्राप्त हुआ।
तदनन्तर उस वरुण नागनप्तक को कालधर्म प्राप्त हुआ जानकर निकटवर्ती वाणव्यन्तर देवों ने उस पर सुगन्धित जल की वृष्टि की, पाँच वर्ण के फूल बरसाए और दिव्यगीत एवं गन्धर्व-निनाद भी किया । तब से उस वरुण नागनप्तृक की उस दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति और दिव्य देवप्रभाव को सूनकर और जानकर बहुत-से लोग परस्पर इस प्रकार कहने लगे, यावत् प्ररूपणा करने लगे- देवानुप्रियो ! संग्राम करते हुए जो बहुत-से मनुष्य मरते हैं, यावत् देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। सूत्र - ३७६
भगवन् ! वरुण नागनप्तृक कालधर्म पाकर कहाँ गया, कहाँ उत्पन्न हुआ ? गौतम ! वह सौधर्मकल्प में अरुणाभ नामक विमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ है । उस देवलोक में कतिपय देवों की चार पल्योपम की स्थिति कही गई है। अतः वहाँ वरुण-देव की स्थिति भी चार पल्योपम की है । भगवन् ! वह वरुण देव उस देवलोक से आयु-क्षय
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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