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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक विमुक्त है, उद्गम और उत्पादना सम्बन्धी एषणा दोषों से रहित है, अंगारदोषरहित है, धूमदोषरहित है, संयोजनादोषरहित है तथा जो सुरसुर और चपचप शब्द से रहित, बहुत शीघ्रता और अत्यन्त विलम्ब से रहित, आहार को लेशमात्र भी छोड़े बिना, नीचे न गिराते हुए, गाड़ी की धूरी के अंजन अथवा घाव पर लगाए जाने वाले लेप की तरह केवल संयमयात्रा के निर्वाह के लिए और संयम-भार को वहन करने के लिए, जिस प्रकार सर्प बिल में प्रवेश करता है, उसी प्रकार जो आहार करते हैं, तो वह शस्त्रातीत, यावत् पान-भोजन का अर्थ है । भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-७ - उद्देशक-२ सूत्र-३३९
हे भगवन् ! मैंने सर्व प्राण, सर्व भूत, सर्व जीव और सभी तत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है, इस प्रकार कहने वाले के सुप्रत्याख्यान होता है या दुष्प्रत्याख्यान होता है ? गौतम! मैंने सभी प्राण यावत् सभी तत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है, ऐसा कहने वाले के कदाचित् सुप्रत्याख्यान होता है कदाचित् दुष्प्रत्याख्यान होता है।
भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है ? गौतम! मैंने समस्त प्राण यावत् सर्व तत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है, इस प्रकार कहने वाले को इस प्रकार अवगत नहीं होता कि ये जीव हैं, ये अजीव हैं, ये त्रस हैं, ये स्थावर हैं: उसका प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान नहीं होता, किन्तु दुष्प्रत्याख्यान होता है । साथ ही, मैंने सभी प्राण यावत् सभी सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है, ऐसा कहने वाला दुष्प्रत्याख्यानी सत्यभाषा नहीं बोलता; किन्तु मृषाभाषा बोलता है । इस प्रकार वह मृषावादी सर्व प्राण यावत् समस्त सत्त्वों के प्रति तीन करण, तीन योग से असंयत, अविरत, पापकर्म से अप्रतिहत और पापकर्म का अप्रत्याख्यानी, क्रियाओं से युक्त, असंवृत, एकान्तदण्ड एवं एकान्तबाल है।
मैंने सर्व प्राण यावत सर्व सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है, यों कहने वाले जिस पुरुष को यह ज्ञात होता है कि ये जीव है, ये अजीव है, ये त्रस है और ये स्थावर हैं, उस पुरुष का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है, किन्तु दुष्प्रत्याख्यान नहीं है। मैंने सर्व प्राण यावत् सर्व सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है। इस प्रकार कहता हुआ वह सुप्रत्याख्यानी सत्यभाषा बोलता है, मृषाभाषा नहीं बोलता । इस प्रकार वह सुप्रत्याख्यानी सत्य-भाषी, सर्व प्राण यावत् सत्त्वों के प्रति तीन करण, तीन योग से संयत, विरत है । (अतीतकालीन) पापकर्मों को उसने घात कर दिया है, (अनागत पापों को) प्रत्याख्यान से त्याग दिया है, वह अक्रिय है, संवृत है और एकान्त पण्डित है। इसीलिए, ऐसा कहा जाता है कि यावत् कदाचित् सुप्रत्याख्यान होता है और कदाचित् दुष्प्रत्याख्यान होता है। सूत्र - ३४०
भगवन् ! प्रत्याख्यान कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! प्रत्याख्यान दो प्रकार का कहा गया है। मूलगुणप्रत्याख्यान और उत्तरगुणप्रत्याख्यान ।
भगवन् ! मूलगुणप्रत्याख्यान कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! दो प्रकार का-सर्वमूलगुणप्रत्या-ख्यान और देशमूलगुणप्रत्याख्यान | भगवन् ! सर्वमूलगुणप्रत्याख्यान कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच प्रकार का है। सर्व-प्राणातिपात से विरमण, सर्व-मषावाद से विरमण, सर्व-अदत्तादान से विरमण, सर्व-मैथुन से विरमण और सर्वपरिग्रह से विरमण । भगवन् ! देशमूलगुणप्रत्याख्यान कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! पाँच प्रकार का कहा गया है। स्थूल-प्राणातिपात से विरमण यावत् स्थूल-परिग्रह से विरमण ।
भगवन् ! उत्तरगुणप्रत्याख्यान कितने प्रकार का है ? गौतम ! दो प्रकार का-सर्व-उत्तरगुणप्रत्याख्यान और देशउत्तरगुणप्रत्याख्यान । भगवन् ! सर्व-उत्तरगुणप्रत्याख्यान कितने प्रकार का है ? गौतम ! दस प्रकार का है-यथासूत्र-३४१
अनागत, अतिक्रान्त, कोटिसहित, नियंत्रित, साकार, अनाकार, परिणामकृत, निरवशेष, संकेत और अद्धाप्रत्याख्यान। सूत्र-३४२
देश-उत्तरगुणप्रत्याख्यान कितने प्रकार का है ? गौतम ! सात प्रकार का-दिग्व्रत, उपभोग-परिभोगपरिणाम
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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