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आगम सूत्र ४, अंगसूत्र-४, 'समवाय'
समवाय/ सूत्रांक समवाय-३३ सूत्र - १०९
शैक्ष याने कि शिष्य के लिए सम्यग्दर्शनादि धर्म की विराधनारूप आशातनाएं तैंतीस कही गई हैं। जैसेशैक्ष (नवदीक्षित) साधु रात्निक (अधिक दीक्षा पर्याय वाले) साधु के-(१) अति निकट होकर गमन करे । (२) शैक्ष साधु रात्निक साधु के आगे गमन करे । (३) शैक्ष साधु रात्निक साधु के साथ बराबरी से चले । (४) शैक्ष सा रात्निक साधु के आगे खड़ा हो । (५) शैक्ष साधु रात्निक साधु के साथ बराबरी से खड़ा हो । (६) शैक्ष साधु रात्निक साधु के अति निकट खड़ा हो । (७) शैक्ष साधु रात्निक साधु के आगे बैठे । (८) शैक्ष साधु रात्निक साधु के साथ बराबरी से बैठे । (९) शैक्ष साधु रात्निक साधु के अति समीप बैठे। (१०) शैक्ष साधु रात्निक साधु के साथ बाहर विचारभूमि को नीकलता हुआ यदि शैक्ष रात्निक साधु से पहले आचमन करे।
(११) शैक्ष साधु रात्निक साधु के साथ बाहर विचार-भूमि को या विहारभूमि को नीकलता हुआ यदि शैक्ष रात्निक साधु से पहले आलोचना करे और रात्निक पीछे करे । (१२) कोई साधु रात्निक साधु के साथ पहले से बात कर रहा हो, तब शैक्ष साधु रात्निक साधु से पहले ही बोले और रात्निक साधु पीछे बोल पावें । (१३) रात्निक साधु रात्रि में या विकाल में शैक्ष से पूछे कि आर्य ! कौन सो रहे हैं और कौन जाग रहे हैं ? यह सूनकर भी यदि शैक्ष अनसूनी करके कोई उत्तर न दे । (१४) शैक्ष साधु अशन, पान, खादिम या स्वादिम लाकर पहले किसी अन्य शैक्ष के सामने आलोचना करे पीछे रात्निक साधु के सामने । (१५) शैक्ष साधु अशन, पान, खादिम या स्वादिम को लाकर पहले किसी अन्य शैक्ष को दिखलावे, पीछे रात्निक साधु को दिखावे । (१६) शैक्ष साधु अशन, पान, खादिम या स्वादिम-आहार लाकर पहले किसी अन्य शैक्ष को भोजन के लिए निमंत्रण दे और पीछे रात्निक साधु को निमंत्रण दे।
(१७) शैक्ष साधु रात्निक साधु के साथ अशन, पान, खादिम, स्वादिम आहार को लाकर रात्निक साधु से बिना पूछे जिस किसी को दे । (१८) शैक्ष साधु अशन, पान, खादिम, स्वादिम आहार लाकर रात्निक साधु के साथ भोजन करता हआ यदि उत्तम भोज्य पदार्थों को जल्दी-जल्दी बड़े-बड़े कवलों से खाता है । (१९) रात्निक साधु के द्वारा कुछ कहे जाने पर यदि शैक्ष उसे अनसूनी करता है । (२०) रात्निक साधु के द्वारा कुछ कहे जाने पर यदि शैक्ष अपने स्थान पर ही बैठे हुए सूनता है । (२१) रात्निक साधु के द्वारा कुछ कहे जाने पर क्या कहा ?' इस प्रकार से यदि शैक्ष कहे । (२२) शैक्ष रात्निक साधु को 'तुम' कहकर बोले । (२३) शैक्ष रात्निक साधु से यदि चपचप करता हुआ उदंडता से बोले ।
(२४) शैक्ष, रात्निक साधु के कथा करते हुए ‘जी हाँ,' आदि शब्दों से अनुमोदना न करे । (२५) शैक्ष, रात्निक साधु के द्वारा धर्मकथा कहते समय 'तुम्हें स्मरण नहीं इस प्रकार से बोले तो । (२६) शैक्ष, रात्निक के द्वारा धर्मकथा कहते समय 'बस करो' इत्यादि कहे । (२७) शैक्ष, रात्निक के द्वारा धर्मकथा कहते समय यदि परीषद को भेदन करे । (२८) शैक्ष, रात्निक साधु के धर्मकथा कहते हुए उस सभा के नहीं उठने पर दूसरी या तीसरी बार भी उसी कथा को कहे । (२९) शैक्ष, रात्निक साधु के धर्मकथा कहते हुए यदि कथा की काट करे । (२९) शैक्ष यदि रात्निक साधु के शय्या-संस्तारक को पैर से ठुकरावे । (३०) शैक्ष यदि रात्निक साधु के शय्या या आसन पर खड़ा होता, बैठता, सोता है । (३१) शैक्ष यदि रात्निक साधु से ऊंचे आसन पर बैठे । (३२) शैक्ष यदि रात्निक साधु के समान आसन पर बैठे । (३३) रात्निक के कुछ कहने पर शैक्ष अपने आसन पर बैठा-बैठा ही उत्तर दे।
असुरेन्द्र असुरराज चमर की राजधानी चमरचंचा नगरी में प्रत्येक द्वार के बाहर तैंतीस-तैंतीस भौम (नगर के आकार वाले विशिष्ट स्थान) कहे गए हैं । महाविदेह वर्ष (क्षेत्र) कुछ अधिक तैंतीस हजार योजन विस्तार वाला है । जब सूर्य सर्वबाह्य मंडल से भीतर की ओर तीसरे मंडल पर आकर संचार करता है, तब वह इस भरत क्षेत्रगत मनुष्य के कुछ विशेष कम तैंतीस हजार योजन की दूरी से दृष्टिगोचर होता है।
इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति तैंतीस पल्योपम कही गई है। अधस्तन सातवी पृथ्वी के काल, महाकाल, रौरुक और महारौरुक नारकावासों के नारकों की उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागरोपम कही गई है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (समवाय) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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