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आगम सूत्र ४, अंगसूत्र- ४, 'समवाय '
समवाय- ५
समवाय / सूत्रांक
सूत्र -५
क्रियाएं पाँच कही गई हैं। जैसे - कायिकी क्रिया, आधिकरणिकी क्रिया, प्राद्वेषीकि क्रिया, पारितानिकी क्रिया, प्राणातिपात क्रिया । पाँच महाव्रत कहे गए हैं। जैसे- सर्व प्राणातिपात से विरमण, सर्वमृषावाद से विरमण, सर्व अदत्तादन से विरमण, सर्व मैथुन से विरमण, सर्व परिग्रह से विरमण ।
इन्द्रियों के विषयभूत कामगुण पाँच कहे गए हैं। जैसे- श्रोत्रेन्द्रिय का विषय शब्द, चक्षुरिन्द्रिय का विषय रूप, रसनेन्द्रिय का विषय रस, घ्राणेन्द्रिय का विषय गन्ध और स्पर्शनेन्द्रिय का विषय स्पर्श ।
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कर्मबंध के कारणों को आस्रवद्वार कहते हैं । वे पाँच हैं । जैसे- मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । कर्मों का आस्रव रोकने के उपायों को संवरद्वार कहते हैं । वे भी पाँच कहे गए हैं- सम्यक्त्व, विरति, अप्रमत्तता, अकषायता और अयोगता या योगों की प्रवृत्ति का निरोध । संचित कर्मों की निर्जरा के स्थान, कारण या उपाय पाँच कहे गए हैं। जैसे- प्राणा-तिपात विरमण, मृषावाद - विरमण, अदत्तादान- विरमण, मैथुन - विरमण, परिग्रह-विरमण |
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संयम की साधक प्रवृत्ति या यतनापूर्वक की जाने वाली प्रवृत्ति को समिति कहते हैं । वे पाँच कही गई हैंगमनागमन में सावधानी रखना ईर्यासमिति है । वचन - बोलने में सावधानी रखकर हित मित प्रिय वचन बोलना भाषा समिति है । गोचरी में सावधानी रखना और निर्दोष, अनुद्दिष्ट भिक्षा ग्रहण करना एषणासमिति है । संयम के साधक वस्त्र, पात्र, शास्त्र आदि के ग्रहण करने और रखने में सावधानी रखना आदान भांड मात्र निक्षेपणा समिति है । उच्चार (मल) प्रस्रवण (मूत्र) श्लेष्म (कफ) सिंघाण (नासिकामल) और जल्ल (शरीर का मैल) परित्याग करने में सावधानी रखना पाँचवी प्रतिष्ठापना समिति है ।
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पाँच अस्तिकाय द्रव्य कहे गए हैं । जैसे- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय ।
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रोहिणी नक्षत्र पाँच तारा वाला कहा गया है । पुनर्वसु नक्षत्र पाँच तारा वाला कहा गया है । हस्त नक्षत्र पाँच तारा वाला कहा गया है । विशाखा नक्षत्र पाँच तारा वाला कहा गया है । धनिष्ठा नक्षत्र पाँच तारा वाला कहा गया है
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इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति पाँच पल्योपम कही गई है । तीसरी वालुकाप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति पाँच सागरोपम कही गई है। सौधर्म ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति पाँच पल्योपम कही गई है ।
सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति पाँच सागरोपम कही गई है। जो देव वात, सुवात, वातावर्त, वातप्रभ, वातकान्त, वातवर्ण, वातलेश्य, वातध्वज, वातशृंग, वातसृष्ट, वातकूट, वातोत्तरावतंसक, सूर, सूसूर, सूरावर्त्त, सूरप्रभ, सूरकान्त, सूरवर्ण, सूरलेश्य, सूरध्वज, सूरशृंग, सूरसृष्ट, सूरकूट और सूरोत्तरावतंसक नाम के विशिष्ट विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति पाँच सागरोपम कही गई है । वे देव पाँच अर्धमासों (ढ़ाई मास) में उच्छ्वास - निःश्वास लेते हैं । उन देवों को पाँच हजार वर्ष में आहार की ईच्छा उत्पन्न होती
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कितनेक भव्यसिद्धिक ऐसे जीव हैं जो पाँच भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे ।
समवाय-५ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (समवाय)" आगमसूत्र - हिन्द-अनुवाद”
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