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________________ आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान' स्थान/उद्देश/सूत्रांक महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए पाँच अभिग्रह प्रशस्त एवं सदा आचरण योग्य कहे हैं । यथा-स्थानातिपद-कायोत्सर्ग करने वाला मुनि । उकडु आसन बैठनेवाला मुनि । प्रतिमास्थायी- एक रात्रिकी आदि प्रतिमाओं को धारण करने वाला मुनि । वीरासनिक-वीरासन से बैठने वाला मुनि । नैषधिक-पालथी लगाकर बैठनेवाला मुनि। महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए पाँच अभिग्रह सदा प्रशस्त एवं आचरण योग्य कहे हैं । यथा-दण्डाय-तिकसीधे पैर कर सोने वाला मुनि । लगडशायी-आँके बाँके पैर व कमर कर सोने वाला मुनि । आतापक-शीत या ग्रीष्म की आतापना लेने वाला मुनि । अपावृतक-वस्त्र रहित रहने वाला मुनि । अकण्डूयक-खाज न खुजाने वाला मुनि। सूत्र - ४३१ पाँच कारणों से श्रमण निर्ग्रन्थ की महानिर्जरा और महापर्यवसान-मुक्ति होती है । यथा-ग्लानि के बिना आचार्य की सेवा करने वाला, ग्लानि के बिना उपाध्याय की सेवा करने वाला, ग्लानि के बिना स्थविर की सेवा करने वाला, ग्लानि के बिना तपस्वी की सेवा करने वाला, ग्लानि के बिना ग्लान की सेवा करने वाला। पाँच कारणों से श्रमण निर्ग्रन्थ की महानिर्जरा और महापर्यवसान होता है । यथा-ग्लानि के बिना नव-दीक्षित की सेवा करने वाला, कुल की सेवा करने वाला, गण की सेवा करने वाला, संघ की सेवा करने वाला, स्वधर्मी की सेवा करने वाला। सूत्र- ४३२ पाँच कारणों से श्रमण निर्ग्रन्थ साम्भोगिक साधर्मिक को विसंभोगी करे तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है । यथा-अकृत्य करने वाले को । अकृत्य करके आलोचना न करने वाले को । आलोचना करके प्रायश्चित्त न करने वाले को । प्रायश्चित्त लेकर भी आचरण न करने वाले को। अरे! ये स्थविर ही बार-बार अकृत्य का सेवन करते हैं तो ये मेरा क्या कर सकेंगे। ऐसा कहने वाले को। पाँच कारणों से श्रमण निर्ग्रन्थ (आचार्य) साम्भोगिक को पाराञ्चिक प्रायश्चित्त दे तो जिनाज्ञा का अति-क्रमण नहीं करता है । यथा-स्वकुल में भेद डालने के लिए कलह करने वाले को । स्वगण में भेद डालने के लिए कलह करने वाले को । हिंसा प्रेक्षी-साधु आदि को मारने के लिए उनका शोध करने वाले को । छिद्र प्रेक्षी-साधु आदि को मारने के लिए अवसर की तलाश में रहने वाले को । प्रश्न विद्या का बार-बार प्रयोग करने वाले को। सूत्र-४३३ आचार्य और उपाध्याय के गण में विग्रह (कलह) के पाँच कारण हैं । यथा-आचार्य या उपाध्याय गण में रहने वाले श्रमणों को आज्ञा या निषेध सम्यक् प्रकार से न करे । गण में रहने वाले श्रमण दीक्षा पर्याय के क्रम से सम्यक् प्रकार से वंदना न करे । गण में काल क्रम से जिसको जिस आगम की वाचना देनी है उसे उस आगम की वाचना न दे | आचार्य या उपाध्याय अपने गण में ग्लान या शैक्ष्य की सेवा के लिए सम्यक् व्यवस्था न करे । गण में रहने वाले श्रमण गुरु की आज्ञा के बिना विहार करे। आचार्य उपाध्याय के गण में अविग्रह (कलह न होने) के पाँच कारण हैं । यथा-आचार्य या उपाध्याय गण में रहने वाले श्रमणों को आज्ञा या निषेध सम्यक् प्रकार से करे । गण में रहने वाले श्रमण दीक्षा पर्याय के क्रम से सम्यक् प्रकार वंदना करे । गण में कालक्रम से जिसको जिस आगम की वाचना देनी है उसे उस आगम की वाचना दे । आचार्य या उपाध्याय अपने गण में ग्लान या शैक्ष्य की सेवा के लिए सम्यक् व्यवस्था करे । गण में रहने वाले श्रमण गुरु की आज्ञा से विहार करे। सूत्र-४३४ पाँच निषद्याएं (बैठने के ढंग) कही गई हैं । यथा-उत्कुटिका-उकडु बैठना । गोदोहिका-गाय दुहे उस आसन से बैठना । समपादपुता-पैर और पुत से पृथ्वी का स्पर्श करके बैठना । पर्यका-पलथी मारकर बैठना । अर्धपर्यकाअर्ध पद्मासन से बैठना। पाँच आर्जव (संवर) के हेतु कहे हैं । यथा-शुभ आर्जव, शुभ मार्दव, शुभ लाघव, शुभ क्षमा, शुभ निर्लोभता। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 90
SR No.034669
Book TitleAgam 03 Sthanang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 03, & agam_sthanang
File Size4 MB
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