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________________ आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान' स्थान/उद्देश/सूत्रांक सूत्र - ७७७, ७७८ आठ दिशा कुमारियाँ अधोलोक में रहती हैं, यथा- भोगंकरा, भोगवती, सुभोगा, भोगमालिनी, सुवत्सा, वत्समित्रा, वारिसेना और बलाहका। सूत्र- ७७९, ७८० आठ दिशा कुमारियाँ ऊर्ध्वलोक में रहती हैं, यथा- मेघंकरा, मेघवती, सुमेघा, मेघमालिनी, तोयधारा, विचित्र, पुष्पमाला और अनिंदिता। सूत्र - ७८१ तिर्यंच और मनुष्यों की उत्पत्ति वाले आठ काल (देवलोक) हैं, यथा-सौधर्म यावत् सहस्त्रारेन्द्र । इन आठ कल्पों में आठ इन्द्र हैं, यथा-शक्रेन्द्र यावत् सहस्त्रारेन्द्र । इन आठ इन्द्रोंके आठ यान विमान हैं-पालक, पुष्पक, सौमनस, श्रीवत्स, नंदावर्त, कामक्रम, प्रीतिमद, विमल सूत्र - ७८२ ___ अष्ट अष्टमिका भिक्षुपडिमा का सूत्रानुसार आराधन यावत्-सूत्रानुसार पालन ६४ अहोरात्रि में होता है और उसमें २८८ बार भिक्षा ली जाती है। सूत्र - ७८३ संसारी जीव आठ प्रकार के हैं, यथा-प्रथम समयोत्पन्न नैरयिक, अप्रथम समयोत्पन्न नैरयिक, यावत्-अप्रथम समयोत्पन्न देव । सर्वजीव आठ प्रकार के हैं, यथा-नैरयिक, तिर्यंच योनिक, तिर्यंचनियाँ, मनुष्य, मनुष्यनियाँ, देव, देवियाँ, सिद्ध अथवा सर्वजीव आठ प्रकार के हैं, यथा-आभिनिबोधिक ज्ञानी, यावत्-केवलज्ञानी, मति अज्ञानी, श्रुत अज्ञानी, विभंग ज्ञानी। सूत्र-७८४ संयम आठ प्रकार का है, यथा-प्रथम समय-सूक्ष्म सम्पराय-सराग-संयम, अप्रथम समय-सूक्ष्म संपराय सराग संयम, प्रथम समय-बादर सराग संयम, अप्रथम समय-बादर-सराग-संयम, प्रथम समय-उपशान्त कषाय-वीतराग संयम, अप्रथम समय-उपशान्त कषाय-वीतराग संयम, प्रथम समय-क्षीण कषाय वीतराग संयम और अप्रथम समयक्षीण कषाय वीतराग संयम। सूत्र - ७८५ पृथ्वीयाँ आठ कही हैं । रत्नप्रभा यावत् अधःसप्तमी और ईषत्प्राग्भारा । ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के बहुमध्य देश भाग में आठ योजन प्रमाण क्षेत्र हैं, वह आठ योजन स्थूल हैं। ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के आठ नाम हैं, यथा ईषत्, ईषत्प्रारभारा, तनु, तनु तनु, सिद्धि, सिद्धालय, मुक्ति, मुक्तालय। सूत्र - ७८६ आठ आवश्यक कार्यों के लिए सम्यक् प्रकार के उद्यम, प्रयत्न और पराक्रम करना चाहिए किन्तु इनके लिए प्रमाद नहीं करना चाहिए, यथा-अश्रुत धर्म को सम्यक् प्रकार से सूनने के लिए तत्पर रहना चाहिए । श्रुत धर्म को ग्रहण करने और धारण करने के लिए तत्पर रहना चाहिए । संयम स्वीकार करने के पश्चात् पापकर्म न करने के लिए तत्पर रहना चाहिए । तपश्चर्या से पुराने पाप कर्मों की निर्जरा करने के लिए तथा आत्मशुद्धि के लिए तत्पर रहना चाहिए । निराश्रित परिजन को आश्रय देने के लिए तत्पर रहना चाहिए । शैक्ष (नवदीक्षित) को आचार और गोचरी विषयक मर्यादा सिखाने के लिए तत्पर रहना चाहिए । ग्लान की ग्लानि रहित सेवा करने के लिए तत्पर रहना चाहिए। साधर्मिकों में कलह उत्पन्न होने पर राग-द्वेष रहित होकर पक्ष ग्रहण किये बिना मध्यस्थ भाव से साधर्मिकों के बोलचाल, कलह और तू-तू मैं-मैं को शान्त करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 132
SR No.034669
Book TitleAgam 03 Sthanang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 03, & agam_sthanang
File Size4 MB
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