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आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक कार्य करता और कराता है, क्योंकि वह सामान्यरूप से उन छहों जीवनिकायों से कार्य करता है और कराता भी है इस कारण वह प्राणी उन छहों जीवनिकायों के जीवों की हिंसा से असंयत, अविरत है, और उनकी हिंसा आदि से जनित पापकर्मों का प्रतिघात और प्रत्याख्यान किया हुआ नहीं है । इस कारण वह प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य तक के सभी पापों का सेवन करता है । तीर्थंकर भगवान ने ऐसे प्राणी को असंयत, अविरत, पापकर्मों का नाश तथा प्रत्याख्यान से निरोध न करने वाला कहा है। चाहे वह प्राणी स्वप्न भी न देखता हो, तो भी वह पापकर्म करता है।
(प्रश्न-) 'वह असंज्ञीदष्टान्त क्या है?' (उत्तर-) असंज्ञी का दष्टान्त इस प्रकार है-'पथ्वीकायिक जीवों से लेकर वनस्पतिकायिक जीवों तक पाँच स्थावर एवं छठे जो त्रससंज्ञक अमनस्क जीव हैं, वे असंज्ञी हैं, जिनमें न तर्क है, न संज्ञा है, न प्रज्ञा है, न मन है, न वाणी है और जो न तो स्वयं कर सकते हैं और न ही दूसरे से करा सकते हैं,
और न करते हुए को अच्छा समझ सकते हैं; तथापि वे अज्ञानी प्राणी भी समस्त प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के दिन-रात सोते या जागते हर समय शत्रु-से बने रहते हैं, उन्हें धोखा देने में तत्पर रहते हैं, उनके प्रति सदैव हिंसात्मक चित्तवृत्ति रखते हैं, इसी कारण वे प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य तक अठारह ही पापस्थानों में सदा लिप्त रहते हैं । इस प्रकार यद्यपि असंज्ञी जीवों के मन नहीं होता, और न ही वाणी होती है, तथापि वे समस्त प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को दुःख देने, शोक उत्पन्न करने, विलाप कराने, रुलाने, पीड़ा देने, वध करने, तथा परिताप देने अथवा उन्हें एक ही साथ दुःख, शोक, विलाप, रुदन, पीड़न, संताप, वध-बन्धन, परिक्लेश आदि करने से विरत नहीं होते, अपितु पापकर्म में सदा रत रहते हैं । इस प्रकार वे प्राणी असंज्ञी होते हुए भी अहर्निश प्राणातिपात में मृषावाद आदि से लेकर परिग्रह तक में तथा मिथ्यादर्शन शल्य तक के समस्त पापस्थानों में प्रवृत्त कहे जाते हैं।
सभी योनियों के प्राणी निश्चित रूप से संज्ञी होकर असंज्ञी हो जाते हैं, तथा असंज्ञी होकर संज्ञी हो जाते हैं। वे संज्ञी या असंज्ञी होकर यहाँ पापकर्मों को अपने से अलग न करके, तथा उन्हें न झाड़कर उनका उच्छेद न करके तथा उनके लिए पश्चात्ताप न करके वे संज्ञी के शरीर से संज्ञी के शरीर में आते हैं, अथवा संज्ञी के शरीर से असंज्ञी के शरीर में संक्रमण करते हैं, अथवा असंज्ञीकाय से संज्ञीकाय में संक्रमण करते हैं अथवा असंज्ञी की काया से असंज्ञी की काया में आते हैं । जो ये संज्ञी अथवा असंज्ञी प्राणी होते हैं, वे सब मिथ्याचारी और सदैव शठतापूर्ण हिंसात्मक चित्तवृत्ति धारण करते हैं । अतएव वे प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य तक पापस्थानों का सेवन करने वाले हैं । इसी कारण से ही भगवान महावीर ने इन्हें असंयत, अविरत, पापों क प्रत्याख्यान न करने वाले, अशुभक्रियायुक्त, संवररहित, एकान्त हिंसक, एकान्त बाल और एकान्त सुप्त कहा है। वह अज्ञानी जीव भले ही मन, वचन, काया और वाक्य का प्रयोग विचारपूर्वक न करता हो, तथा (हिंसा का) स्वप्न भी न देखता हो, फिर भी पापकर्म (का बन्ध) करता रहता है। सूत्र - ७०४
(प्रेरक ने पुनः कहा) मनुष्य क्या करता हुआ, क्या कराता हुआ तथा कैसे संयत, विरत तथा पापकर्म का प्रतिघात और प्रत्याख्यान करने वाला होता है ? आचार्य ने कहा-इस विषय में तीर्थंकर भगवान ने षड् जीवनिकायों को (संयम अनुष्ठान का) कारण बताया है। वे छह प्राणीसमूह इस प्रकार हैं-पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक के जीव । जैसे कि किसी व्यक्ति द्वारा डंडे से, हड्डियों से, मुक्कों से, ढेले से या ठीकरे से मैं ताड़न किया जाऊं या पीड़ित किय जाऊं, यहाँ तक कि मेरा केवल एक रोम उखाड़ा जाए तो मैं हिंसाजनि दुःख, भय और असाता का अनुभव करता हूँ, इसी तरह जानना चाहिए कि समस्त प्राणी यावत् सभी सत्त्व डंडे आदि से लेकर ठीकरे तक से मारे जाने पर एवं पीड़ित किये जाने पर, यहाँ तक कि एक रोम भी उखाड़े जाने पर हिंसाजनित दुःख और भय का अनुभव करते हैं । ऐसा जानकर समस्त प्राणियों यावत् सभी सत्त्वों को नहीं मारना चाहिए, यहाँ तक कि उन्हें पीड़ित नहीं करना चाहिए । यह धर्म ही ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है, तथा लोक के स्वभाव को सम्यक जानकर खेदज्ञ या क्षेत्रज्ञ तीर्थंकरदेवों द्वारा प्रतिपादित है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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