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आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र - ५२
जो जानते हुए शरीर से किसी को नहीं मारता है या अनजान में हिंसा कर देता है, वह अव्यक्त/सूक्ष्म सावध कर्म का स्पृष्ट कर संवेदन अवश्य करता है । सूत्र -५३
ये तीन आगमन-द्वार हैं, जिनसे पाप की क्रिया होती है । अभिक्रम्य-स्वयं कृत प्रयत्न से, प्रेष्य-अन्य सहयोग से और वैचारिक अनुमोदन से । सूत्र - ५४
ये तीन आदान हैं, जिनसे पाप किया जाता है। निर्वाण भाव-विशुद्धि से प्राप्त होता है। सूत्र-५५
असंयत पिता आहार के लिए पुत्र की हिंसा करता है, किन्तु मेघावी पुरुष उसका उपभोग करते हुए भी कर्म से लिप्त नहीं होता। सूत्र - ५६
जो मन से प्रदूषित हैं, उनके चित्त नहीं होता । वे संवतचारी न होने के कारण अनवद्य और अतथ्य हैं। सूत्र - ५७
इन दृष्टियों को स्वीकार करने से वे सुख-गौरव-निश्रित हो जाते हैं । वे लोग इसी को शरण मानते हए पाप का सेवन करते हैं। सूत्र-५८, ५९
जैसे जन्मान्ध पुरुष आस्रविनी/सछिद्र नौका पर आरूढ़ हो कर पार पाना चाहता है, किन्तु उसे बीच में ही विषाद करना पड़ता है । इसी प्रकार कुछ मिथ्यादृष्टि अनार्य श्रमण संसार का पार पाना चाहते हैं, किन्तु वे संसार में ही अनुपर्यटन करते हैं। -ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-१- उद्देशक-३ सूत्र - ६०
श्रद्धालु पुरुष आगंतुक भिक्षु की ईच्छा से जो कुछ भी भोजन पकाता है, हजार घरों के अन्तरित हो जाने पर भी उपभोग करना उभयपक्षों का ही सेवन है। सूत्र - ६१
वे अकोविद भिक्षु इस विषमता को नहीं जानते । विशाल-काय मत्स्य जल के किनारे आ जाते हैं।
सूत्र-६२
जल के कम हो जाने पर किनारा शीघ्र सूख जाता है । तब आमिषभोजी ध्वक्षि और कंक पक्षियों द्वारा वे दुःखी होते हैं। सूत्र - ६३
वर्तमान सुख के अभिलाषी कुछ श्रमण भी इसी प्रकार विशालकाय मत्स्यों के समान अनन्त बार मृत्यु की एषणा है। सूत्र - ६४-६६
यह एक अन्य अज्ञान है । कुछ दार्शनिक यह कहते हैं कि यह लोक देव उत्पादित है तो कछ कहते हैं कि ब्रह्मा द्वारा उत्पादित है।
कछ कहते हैं-जीव-अजीव से युक्त तथा सुख-दुःख से सम्पृक्त यह लोक ईश्वर-कृत है। कुछ अन्य इसको प्रधान/प्रकृति कृत कहते हैं । अथवा लोक स्वयम्भू कृत है ऐसा महर्षि न कहा है । उसने मृत्यु से माया विस्तृत की, अतः लोक अशाश्वत है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (सूत्रकृत) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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