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आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र-३८
वे मूढ अव्यक्त और अकोविद श्रमण धर्म के ज्ञापन में शंका करते हैं, किन्तु आरम्भों (हिंसाजन्य वृत्तियों) में शंका नहीं करते हैं। सूत्र - ३९
सर्वात्मक (लोभ), व्युत्कर्ष (अभिमान), णूम (माया), अप्रीतिक (क्रोध) को नष्ट कर जीव अकर्मांश हो जाता है, मृग समान अज्ञानी इस अर्थ को त्याग देता है। सूत्र-४०
जो मिथ्यादृष्टि अनार्य पुरुष इस तथ्य को नहीं जानते, वे पाश-बद्ध मृग की तरह अनन्त बार नष्ट होते हैं। सूत्र - ४१
कुछेक ब्राह्मण और श्रमण अपने ज्ञान को सत्य कहते हैं । उनके अनुसार सम्पूर्ण लोक में उनके मत से जो भिन्न प्राणी हैं, वे कुछ भी नहीं जानते हैं। सूत्र-४२,४३
जैसे म्लेच्छ अम्लेच्छ की बातें करता है, किन्तु उसके हेतु को नहीं जानता, मात्र कथित का कथन करता है। ..... इसी प्रकार अज्ञानी (पूर्ण ज्ञान रहित) अपने-अपने ज्ञान को कहते हए भी निश्चयार्थ को नहीं जानते । वे म्लेच्छ की तरह अबोधिक होते हैं। सूत्र - ४४
अज्ञानिकों का विमर्श अज्ञान में निश्चय नहीं करा सकता है । जब वे अपने आप पर अनुशासन नहीं कर पाते, तब दूसरों को कैसे अनुशासित कर सकते हैं ? सूत्र-४५
जैसे वन में दिग्भ्रमित पुरुष यदि दिग्भ्रमित नेता का ही अनुगमन करता है, तो वे दोनों अकोविद होने के कारण तीव्र स्रोत/जंगल में चले जाते हैं। सूत्र-४६
अन्धा अन्धे को पथ पर ले जाता हुआ या तो दूर ले जाता है या उत्पथ पर चला जाता है अथवा अन्य पथ का अनुगमन कर लेता है। सूत्र-४७
इसी प्रकार कुछ नियागार्थी/मोक्षार्थी कहते तो हैं कि हम धर्म के आराधक हैं, किन्तु वे अधर्म का सेवन करते हैं । वे सर्व-ऋजु-मार्ग पर नहीं चलते । सूत्र -४८
कुछ लोग वितर्कों के कारण किसी अन्य की पर्युपासना नहीं करते । वे दुर्मति अपने वितर्कों के कारण कहते हैं-यह मार्ग ही ऋजु है।
सूत्र -४९
इस प्रकार अकोविद-पुरुष धर्म और अधर्म को तर्क से सिद्ध करते हैं । वे दुःखों से वैसे ही नहीं छूट पाते जैसे पींजरे से पक्षी। सूत्र - ५०
अपने-अपने वचन की प्रशंसा और दूसरे के वचन की निन्दा करते हुए जो उछलते हैं, वे संसार बढ़ाते हैं सूत्र - ५१
अब इसके बाद क्रियावादी दर्शन है, जो पूर्व कथित है । कर्म-चिन्तन नष्ट करने के कारण यह संसारप्रवर्धक है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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