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________________ आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्' श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र - ६६८ वे नरक अंदर से गोल और बाहर से चौकोन होते हैं, तथा नीचे उस्तरे की धार के समान तीक्ष्ण होते हैं । उनमें सदा घोर अन्धकार रहता है । वे ग्रह, चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र और ज्योतिष्कमण्डल की प्रभा से रहित हैं । उनका भूमितल भेद, चर्बी, माँस, रक्त, और मवाद की परतों से उत्पन्न कीचड़ से लिप्त है । वे नरक अपवित्र, सड़े हुए माँस से युक्त, अतिदुर्गन्ध पूर्ण और काल हैं । वे सधूम अग्नि के समान वर्ण वाले, कठोर स्पर्श वाले और दुःसह्य हैं इस प्रकार नरक बड़े अशुभ हैं और उनकी वेदनाएं भी बहुत अशुभ हैं । उन नरकों में रहने वाले नैरयिक न कभी निद्रा सुख प्राप्त करते हैं, न उन्हें प्रचलानिद्रा आती है, और न उन्हें श्रुति, रति, धृति एवं मति प्राप्त होती है । वे नारकीय जीव वहाँ कठोर, विपुल, प्रगाढ़, कर्कश, प्रचण्ड, दुर्गम्य, दुःखद, तीव्र, दुःसह वेदना भोगते हुए अपना समय व्यतीत करते हैं। सूत्र-६६९ जैसे कोई वृक्ष पर्वत के अग्रभाग में उत्पन्न हो, उसकी जड़ काट दी गई हो, वह आगे से भारी हो, वह जिधर नीचा होता है, जिधर विषम होता है, जिधर दुर्गम स्थान होता है, उधर ही गिरता है, इसी प्रकार गुरुकर्मा पूर्वोक्त पापिष्ठ पुरुष एक गर्भ से दूसरे गर्भ को, एक जन्म से दूसरे जन्म को, एक मरण से दूसरे मरण को, एक नरक से दूसरे नरक को तथा एक दुःख से दूसरे दुःख को प्राप्त करता है। वह दक्षिणगामी नैरयिक, कृष्णपाक्षिक तथा भविष्य में दुर्लभ-बोधि होता है। अतः यह अधर्मपक्षीय प्रथम स्थान अनार्य है, केवलज्ञानरहित है, यावत् समस्त दुःखों का नाशक मार्ग नहीं है । यह स्थान एकान्त मिथ्या एवं बूरा है। सूत्र-६७० पश्चात् दूसरे धर्मपक्ष का विवरण है-इस मनुष्यलोक में पूर्व आदि दिशाओं में कईं पुरुष ऐसे होते हैं, जो अनारम्भ, अपरिग्रह होते हैं, जो धार्मिक होते हैं, धर्मानुसार प्रवृत्ति करते हैं या धर्म की अनुज्ञा देते हैं, धर्म को ही अपना इष्ट मानते हैं, या धर्मप्रधान होते हैं, धर्म की ही चर्चा करते हैं, धर्ममयजीवी, धर्म को ही देखने वाले, धर्म में अनुरक्त, धर्मशील तथा धर्मचारपरायण होते हैं, यहाँ तक कि वे धर्म से ही अपनी जीविका उपार्जन करते हुए जीवन यापन करते हैं, जो सुशील, सुव्रती, शीघ्रसुप्रसन्न होने वाले और उत्तम सुपुरुष होते हैं । जो समस्त प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक जीवनभर विरत रहते हैं । जो स्नानादि से आजीवन निवृत्त रहते हैं, समस्त गाड़ी, घोड़ा, रथ आदि वाहनों से आजीवन विरत रहते हैं, क्रय-विक्रय, पचन, पाचन सावद्यकर्म करने-कराने, आरम्भ-समारम्भ आदि से आजीवन निवृत्त रहते हैं, सर्वपरिग्रह से निवृत्त रहते हैं, यहाँ तक कि वे परपीड़ाकारी समस्त सावध अनार्य कर्मों से यावज्जीवन विरत रहते हैं। वे धार्मिक पुरुष अनगार भाग्यवान होते हैं । वे ईर्यासमिति, यावत् उच्चार-प्रस्रवण-खेल-जल्ल-सिधाणपरिष्ठापनिका समिति, इन पाँच समितियों से युक्त होते हैं, तथा मनःसमिति, वचनसमिति, कायसमिति, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति से भी युक्त होते हैं । वे अपनी आत्मा को पापों से गुप्त रखते हैं, अपनी इन्द्रियों को विषयभोगों से गुप्त रखते हैं, और ब्रह्मचर्य का पालन नौ गुप्तियों सहित करते हैं। वे क्रोध, मान, माया और लोभ से रहित होते हैं । वे शान्ति तथा उत्कृष्ट शान्ति से युक्त और उपशान्त होते हैं । वे समस्त संतापों से रहित, आश्रवों से रहित, बाह्य-आभ्यन्तर-परिग्रह से रहित होते हैं, इन महात्माओं ने संसार के स्रोत का छेदन कर दिया है, ये कर्ममलके लेप से रहित होते हैं । वे जलके लेप से रहित कांसे की पात्री की तरह कर्मजलके लेप से रहित होते हैं। जैसे शंख कालिमा से रहित होता है, वैसे ही ये महात्मा रागादि के कालुष्य से रहित होते हैं । जैसे जीव की गति कहीं नहीं रुकती, वैसे ही उन महात्माओं की गति कहीं नहीं रुकती । जैसे गगनतल बिना अवलम्बन के ही रहता है, वैसे ही ये महात्मा निरावलम्बी रहते हैं । जैसे वायु को कोई रोक नहीं सकता, वैसे ही, ये महात्मा भी द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के प्रतिबन्ध से रहित होते हैं । शरद्काल के स्वच्छ पानी की तरह उनका हृदय भी शुद्ध और मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 80
SR No.034668
Book TitleAgam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 02, & agam_sutrakritang
File Size3 MB
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