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________________ आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्' श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक स्थान के लिए तरसते हैं । यह स्थान अनार्य है, बिलज्ञान-रहित है, परिपूर्ण सुख रहित है, सुन्यायत्त से रहित है, संशुद्धि-पवित्रता से रहित है, मायादि शल्य को काटने वाला नहीं है, यह सिद्धि मार्ग नहीं है, यह मुक्ति का मार्ग नहीं है, यह निर्वाण का मार्ग नहीं है, यह निर्याण का मार्ग नहीं है, यह सर्व दुःखों का नाशक मार्ग नहीं है । यह एकान्त मिथ्या और असाधु स्थान है । यही अधर्मपक्ष नामक प्रथम स्थान का विकल्प है, ऐसा कहा है। सूत्र - ६६५ इसके पश्चात् द्वितीय स्थान धर्मपक्ष का विकल्प इस प्रकार कहा जाता है-इस मनुष्यलोक में पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशाओं में अनेक प्रकार के मनुष्य रहते हैं, जैसे कि-कईं आर्य होते हैं, कईं अनार्य अथवा कईं उच्चगोत्रीय होते हैं, कईं नीचगोत्रीय, कईं विशालकाय होते हैं, कईं ह्रस्वकाय, कईं अच्छे वर्ण के होते हैं, कई खराब वर्ण के अथवा कईं सुरूप होते हैं, कईं कुरूप । उन मनुष्यों के खेत और मकान परिग्रह होते हैं । यह सब वर्णन 'पौण्डरीक' के प्रकरण के समान समझना । यह स्थान आर्य है, केवलज्ञान की प्राप्ति का कारण है, (यहाँ से लेकर) समस्त दुःखों का नाश करने वाला मार्ग है (यावत्-) | यह एकान्त सम्यक् और उत्तम स्थान है। इस प्रकार धर्म-पक्ष नामक द्वितीय स्थान का विचार प्रतिपादित किया गया है। सूत्र-६६६ इसके पश्चात् तीसरे स्थान मिश्रपक्ष का विकल्प इस प्रकार है-जो ये आरण्यक है, यह जो ग्राम के निकट झोंपड़ी या कुटिया बनाकर रहते हैं, अथवा किसी गुप्त क्रिया का अनुष्ठान करते हैं, या एकान्त में रहते हैं, यावत् फिर वहाँ से देह छोड़कर इस लोक में बकरे की तरह मूक के रूप में या जन्मान्ध के रूप में आते हैं । यह स्थान अनार्य है, केवलज्ञान-प्राप्ति से रहित है, यहाँ तक कि यह समस्त दुःखों से मुक्त कराने वाला मार्ग नहीं है। यह स्थान एकान्त मिथ्या और बुरा है। इस प्रकार यह तीसरे मिश्रस्थान का विचार (विभंग) कहा गया है। सूत्र - ६६७ इसके पश्चात् प्रथम स्थान जो अधर्मपक्ष है, उसका विश्लेषणपूर्वक विचार किया जाता है-इस मनुष्यलोक में पूर्व आदि दिशाओं में कईं मनुष्य ऐसे होते हैं, जो गृहस्थ होते हैं, जिनकी बड़ी-बड़ी इच्छाएं होती हैं, जो महारम्भी एवं महापरिग्रही होते हैं । वे अधार्मिक, अधर्म का अनुसरण करने या अधर्म की अनुज्ञा देने वाले, अधर्मिष्ठ, अधर्म की चर्चा करने वाले, अधर्मप्रायः जीवन जीने वाले, अधर्म को ही देखने वाले, अधर्म-कार्यों में ही अनुरक्त, अधर्ममय शील (स्वभाव) और आचार वाले एवं अधर्म युक्त धंधों से अपनी जीविका उपार्जन करते हुए जीवन यापन करते हैं । इन (प्राणियों) को मारो, अंग काट डालो, टुकड़े-टुकड़े कर दो । वे प्राणियों की चमड़ी उधेड़ देते हैं, प्राणियों के खून से उनके हाथ रंगे रहते हैं, वे अत्यन्त चण्ड, रौद्र और क्षुद्र होते हैं, वे पाप कृत्य करने में अत्यन्त साहसी होते हैं, वे प्रायः प्राणियों को ऊपर उछालकर शूल पर चढ़ाते हैं, दूसरों को धोखा देते हैं, माया करते हैं, बकवृत्ति से दूसरों को ठगते हैं, दम्भ करते हैं, वे तौल-नाप में कम देते हैं, वे धोखा देने के लिए देश, वेष और भाषा बदल लेते हैं। वे दुःशील, दुष्ट-व्रती और कठिनता से प्रसन्न किये जा सकने वाले एवं दुर्जन होते हैं । जो आजीवन सब प्रकार की हिंसाओं से विरत नहीं होते यहाँ तक कि समस्त असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह से जीवनभर निवृत्त नहीं होते । जो क्रोध से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य तक अठारह ही पापस्थानों से जीवनभर निवृत्त नहीं होते । वे आजीवन समस्त स्नान, तैलमर्दन, सुगन्धित पदार्थों का लगाना, सुगन्धित चन्दनादि का चूर्ण लगाना, विलेपन करना, मनोहर कर्ण शब्द, मनोज्ञ रूप, रस, गन्ध और स्पर्श का उपभोग करना, पुष्पमाला एवं अलंकार धारण करना, इत्यादि सब का त्याग नहीं करते, जो समस्त गाड़ी, रथ, यान, सवारी, डोली, आकाश की तरह अधर रखी जाने वाली सवारी आदि वाहनों तथा शय्या, आसन, वाहन, भोग और भोजन आदि को विस्तृत करने की विधि को जीवनभर नहीं छोड़ते, जो सब प्रकार के क्रय-विक्रय तथा माशा, आधा माशा और तोला आदि व्यवहारों से मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 78
SR No.034668
Book TitleAgam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 02, & agam_sutrakritang
File Size3 MB
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