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________________ आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्' श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक निर्जरा होती है । इस प्रकार वह ईर्यापथिकी क्रिया क्रमश: बद्ध, स्पृष्ट, उदीरित, वेदित और निर्जीण होती है। फिर आगामी समय में वह अकर्मता को प्राप्त होती है। इस प्रकार वीतराग पुरुष के पूर्वोक्त ईर्यापथिक क्रिया के कारण असावध कर्म का बन्ध होता है । इसीलिए इस तेरहवे क्रियास्थान को ऐर्यापथिक कहा गया है । मैं कहता हूँ कि भूतकाल में जितने तीर्थंकर हुए हैं, वर्तमान काल में जितने तीर्थंकर हैं, और भविष्य में जितने भी तीर्थंकर होंगे, उन सभी ने इन तेरह क्रियास्थानों का कथन किया है, करते हैं तथा करेंगे, इसी प्रकार भूतकालीन तीर्थंकरों ने इन्हीं क्रियास्थानों की प्ररूपणा की है, वर्तमान र करते हैं तथा भविष्यकालिक तीर्थंकर इन्हीं की प्ररूपणा करेंगे । इसी प्रकार प्राचीन तीर्थंकरों ने इसी तेरहवे क्रियास्थान का सेवन किया है, वर्तमान तीर्थंकर भी इसी का सेवन करते हैं और भविष्य में होने वाले तीर्थंकर भी इसी का सेवन करेंगे। सूत्र-६६२ इसके पश्चात् पुरुषविजय अथवा पुरुषविचय के विभंग का प्रतिपादन करूँगा । इस मनुष्यक्षेत्र में या प्रवचन में नाना प्रकार की प्रज्ञा, नाना अभिप्राय, नाना प्रकार के शील, विविध दृष्टियों, अनेक रुचियों, नाना प्रकार के आरम्भ तथा नाना प्रकार के अध्यवसायों से युक्त मनुष्यों द्वारा अनेकविध पापशास्त्रों का अध्ययन किया जाता है । वे इस प्रकार हैं-भौम, उत्पात, स्वप्न, अन्तरिक्ष, अंग, स्वर, लक्षण, व्यञ्जन, स्त्रीलक्षण, पुरुषलक्षण, हयलक्षण, गजलक्षण, गोलक्षण, मेषलक्षण, कुक्कुटलक्षण, तित्तिरलक्षण, वर्तकलक्षण, लावकलक्षण, चक्रलक्षण, छत्रलक्षण, चर्मलक्षण, दण्डलक्षण, असिलक्षण, मणिलक्षण, काकिनीलक्षण, सुभगाकर, दुर्भगाकर, गर्भकरी, मोहनकरी, आथर्वणी, पाकशासन, द्रव्यहोम, क्षत्रियविद्या, चन्द्रचरित, सूर्यचरित, शुक्रचरित, बृहस्पतिचरित, उल्कापात, दिग्दाह, मृगचक्र, वायंसपरिमण्डल, पासुवृष्टि, केशवृष्टि, मांसवृष्टि, रुधिरवृष्टि, वैताली, अर्द्धवैताली, अवस्वापिनी, तालोद्घाटिनी, श्वपाकी, शाबरीविद्या, द्राविड़ी विद्या, कालिंगी विद्या, गौरीविद्या, गान्धारी विद्या, अवपतनी, उत्पतनी, जृम्भणी, स्तम्भनी, श्लेषणी, आमयकरणी, विशल्यकरणी, प्रक्रमणी, अन्तर्धानी और आयामिनी इत्यादि अनेक विद्याओं का प्रयोग वे भोजन और पेय पदार्थों के लिए, वस्त्र के लिए, आवास-स्थान के लिए, शय्या की प्राप्ति के लिए तथा अन्य नाना प्रकार के कामभोगों की प्राप्ति के लिए करते हैं । वे इन प्रतिकूल वक्र विद्याओं का सेवन करते हैं । वस्तुतः वे विप्रतिपन्न एवं अनार्य ही हैं। वे मृत्यु का समय आने पर मरकर आसुरिक किल्बिषिक स्थान में उत्पन्न होते हैं । वहाँ से आयु पूर्ण होते ही देह छूटने पर वे पुनः पुनः ऐसी योनियों में जाते हैं जहाँ वे बकरे की तरह मूक, या जन्म से अंधे, या जन्म से ही गूंगे होते हैं। सूत्र - ६६३ कोई पापी मनुष्य अपने लिए अथवा अपने ज्ञातिजनों के लिए अथवा कोई अपना घर बनाने के लिए या अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए अथवा अपने नायक या परिचित जन तथा सहवासी के लिए निम्नोक्त पापकर्म का आचरण करने वाले बनते हैं-अनुगामिक बनकर, उपचरक बनकर, प्रातिपथिक बनकर, सन्धिच्छेदक बनकर, ग्रन्थिच्छेदक बनकर, औरभ्रिक बनकर, शौकरिक बनकर, वागुरिक बनकर, शाकुनिक बनकर, मात्स्यिक बनकर, गोपालक बनकर, गोघातक बनकर, श्वपालक बनकर या शौवान्तिक बनकर । (१) कोई पापी पुरुष उसका पीछा करने की नीयत से साथ में चलने की अनुकूलता समझाकर उसके पीछे-पीछे चलता है और अवसर पाकर उसे मारता है, हाथ-पैर आदि अंग काट देता है, अंग चूर चूर कर देता है, विडम्बना करता है, पीड़ित कर या डरा-धमका कर अथवा उसे जीवन से रहित करके (उसका धन लूट कर) अपना आहार उपार्जन करता है । इस प्रकार वह महान (क्रूर) पापकर्मों के कारण (महापापी के नाम से) अपने आपको जगत में प्रख्यात कर देता है। (२) कोई पापी पुरुष किसी धनवान की अनुचरवृत्ति, सेवकवृत्ति स्वीकार करके उसी को मार-पीट कर, मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 74
SR No.034668
Book TitleAgam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 02, & agam_sutrakritang
File Size3 MB
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