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इसकप
आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक तथा अपने परिवार के लिए अदत्त-स्वयं ग्रहण करता है, दूसरे को ग्रहण कराता है और अदत्त ग्रहण करते हुए अन्य व्यक्ति का अनुमोदन करता है, तो ऐसा करने वाला उसको अदत्तादान-सम्बन्धित सावध कर्म का बन्ध होता है। सूत्र - ६५६
इसके बाद आठवा अध्यात्मप्रत्ययिक क्रियास्थान है । जैसे कोई ऐसा पुरुष है, किसी विसंवाद के कारण, दुःख उत्पन्न करने वाला कोई दूसरा नहीं है फिर भी वह स्वयमेव हीन भावनाग्रस्त, दीन, दुश्चिन्त दुर्मनस्क, उदास होकर मन में अस्वस्थ संकल्प करता रहता है, चिन्ता और शोक के सागर में डूबा रहता है, एवं हथेली पर मुँह रख कर पृथ्वी पर दृष्टि किये हुए आर्तध्यान करता रहता है । निःसन्देह उसके हृदय में संचित चार कारण हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । वस्तुतः क्रोध, मान, माया और लोभ आध्यात्मिक भाव हैं । उस प्रकार अध्यात्मभाव के कारण सावद्यकर्म का बन्ध होता है। सूत्र-६५७
इसके पश्चात् नौवा क्रियास्थान मानप्रत्ययिक है। जैसे कोई व्यक्ति जातिमद, कुलमद, रूपमद, तपोमद, श्रुत मद, लाभमद, ऐश्वर्यमद एवं प्रज्ञापद, इन में से किसी एक मद-स्थान से मत्त हो कर दूसरे व्यक्ति की अवहेलना करता है, निन्दा करता है, उसे झिड़कता है, या धृणा करता है, गर्दा करता है, दूसरे को नीचा दिखाता है, उसका अपमान करता है । यह व्यक्ति हीन हैं, मैं विशिष्ट जाति, कुल, बल आदि गुणों से सम्पन्न हूँ, इस प्रकार अपने आपको उत्कृष्ट मानता हुआ गर्व करता है । इस प्रकार जाति आदि मदों से उन्मत्त पुरुष आयुष्य पूर्ण होने पर शरीर को छोड़कर कर्ममात्र को साथ लेकर विवशतापूर्वक परलोक प्रयाण करता है । वहाँ वह एक गर्भ से दूसरे गर्भ को, एक जन्म से दूसरे जन्म को, एक मरण से दूसरे मरण को और एक नरक से दूसरे नरक को प्राप्त करता है । परलोक में वह चण्ड, नम्रतारहित चपल और अतिमानी होता है ।
इस प्रकार वह व्यक्ति उक्त अभिमान की क्रिया के कारण सावद्यकर्मबन्ध करता है। सूत्र-६५८
इसके बाद दसवाँ क्रियास्थान मित्रदोष प्रत्ययिक है । जैसे-कोई पुरुष माता, पिता, भाइयों, बहनों, पत्नी, कन्याओं, पुत्रों अथवा पुत्रवधूओं के साथ निवास करता हुआ, इनसे कोई छोटा-सा भी अपराध हो जाने पर स्वयं भारी दण्ड देता है. उदाहरणार्थ-सर्दी के दिनों में अत्यन्त ठंडे पानी में उन्हें इबोता है; गर्मी के दिनों में उनके शरीर पर अत्यन्त गर्म पानी छींटता है, आग से उनके शरीर को जला देता है या गर्म दाग देता है, तथा जोत्र से, बेंत से छड़ी से, चमड़े से, लता से या चाबुक से अथवा किसी प्रकार की रस्सी से प्रहार करके उसके बगल की चमड़ी उधेड़ देता है, तथैव डंडे से, हड्डी से, मुक्के से, ढेले से, ठीकरे या खप्पर से मार-मार कर उसके शरीर को ढीला कर देता है । ऐसे पुरुष के घर पर रहने से उसके सहवासी परिवारिकजन दुःखी रहते हैं, ऐसे पुरुष के परदेश प्रवास करने से वे सुखी रहते हैं । इस प्रकार का व्यक्ति जो डंडा बगल में दबाए रखता है, जरा से अपराध पर भारी दण्ड देता है, हर बात में दण्ड को आगे रखता है, वह इस लोक में तो अपना अहित करता ही है परलोक में भी अपना अहित करता है । वह प्रतिक्षण ईर्ष्या से जलता रहता है, बात-बात में क्रोध करता है, दूसरों की पीठ पीछे निन्दा करता है, या चुगली खाता है।
इस प्रकार के व्यक्ति को हितैषी व्यक्तियोंको महादण्ड देने की क्रिया निमित्त से पापकर्म का बन्ध होता है। सूत्र - ६५९
ग्यारहवाँ क्रियास्थान है, मायाप्रत्ययिक है । ऐसे व्यक्ति, जो किसी को पता न चल सके, ऐसे गूढ आचार वाले होते हैं, लोगों को अंधेरे में रखकर कायचेष्टा या क्रिया करते हैं, तथा उल्लू के पंख के समान हलके होते हुए भी अपने आपको पर्वत के समान बड़ा भारी समझते हैं, वे आर्य्य होते हुए भी अनार्यभाषाओं का प्रयोग करते हैं, वे अन्य रूप में होते हुए भी स्वयं को अन्यथा मानते हैं; वे दूसरी बात पूछने पर दूसरी बात का व्याख्यान करने लगते हैं, दूसरी बात कहने के स्थान पर दूसरी बात का वर्णन करने पर उतर जाते हैं । (उदाहरणार्थ-) जैसे किसी
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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