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________________ आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्' श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक किसी दुर्गम स्थान में तृण या घास को बिछा-बिछा कर अथवा ऊंचा ढेर करके, स्वयं उसमें आग लगाता है, अथवा दूसरे से आग लगवाता है, अथवा इन स्थानों पर आग लगाते हुए अन्य व्यक्ति का अनुमोदन करता है, वह पुरुष निष्प्रयोजन प्राणियों को दण्ड देता है । इस प्रकार उस पुरुष को व्यर्थ ही प्राणियों के घात के कारण सावध कर्म का बन्ध होता है। सूत्र - ६५१ इसके पश्चात् तीसरा क्रियास्थान हिंसादण्डप्रत्ययिक कहलाता है । जैसे कि-कोई पुरुष त्रस और स्थावर प्राणियों को इसलिए स्वयं दण्ड देता है कि इस जीव ने मुझे या मेरे सम्बन्धी को तथा दूसरे को या दूसरे के सम्बन्धी को मारा था, मार रहा है या मारेगा अथवा वह दूसरे से त्रस और स्थावर प्राणी को वह दण्ड दिलाता है, या त्रस और स्थावर प्राणी को दण्ड देते हुए दूसरे पुरुष का अनुमोदन करता है । ऐसा व्यक्ति प्राणियों को हिंसारूप दण्ड देता है। उस व्यक्ति को हिंसाप्रत्ययिक सावद्यकर्म का बन्ध होता है। सूत्र-६५२ इसके बाद चौथा क्रियास्थान अकस्माद् दण्डप्रत्ययिक है । जैसे कि कोई व्यक्ति नदी के तट पर अथवा द्रह पर यावत् किसी घोर दुर्गम जंगल में जाकर मृग को मारने की प्रवृत्ति करता है, मृग को मारने का संकल्प करता है, मृग का ही ध्यान रखता है, मृग का वध करने के लिए जल पड़ता है; 'यह मृग है। यों जानकर किसी एक मृग को मारने के लिए वह अपने धनुष पर बाण को खींच कर चलाता है, किन्तु उस मृग को मारने का आशय होने पर भी उसका बाण लक्ष्य को न लग कर तीतर, बटेर, चिड़ियाँ, लावक, कबूतर, बन्दर या कपिंजल पक्षी को लगकर उन्हें बींध डालता है। ऐसी स्थिति में वह व्यक्ति दूसरे के लिए प्रयुक्त दण्ड से दूसरे का घात करता है, वह दण्ड ईच्छा न होने पर भी अकस्मात हो जाता है इसलिए इसे अकस्माद्दण्ड क्रियास्थान कहते हैं। जैसे कोई पुरुष शाली, व्रीहि, कोद्रव, कंगू, परक और राल नामक धान्यों को शोधन करता हुआ किसी तृण को काटने के लिए शस्त्र चलाए, और मैं श्यामाक, तृण और कुमुद आदि घास को काटू' ऐसा आशय होने पर भी शाली, व्रीहि, कोद्रव, कंगू, परक और राल के पौधों का ही छेदन कर बैठता है । इस प्रकार अन्य वस्तु को लक्ष्य करके किया हुआ दण्ड अन्य को स्पर्श करता है । यह दण्ड भी घातक पुरुष का अभिप्राय न होने पर भी अचानक हो जाने के कारण अकस्माद्दण्ड कहलाता है । इस प्रकार अकस्मात् दण्ड देने के कारण उस घातक पुरुष को सावद्यकर्म का बन्ध होता है। सूत्र - ६५३ इसके पश्चात् पाँचवा क्रियास्थान दृष्टिविपर्यास दण्डप्रत्ययिक है । जैसे कोई व्यक्ति अपने माता, पिता, भाइयों, बहनों, स्त्री, पुत्रों, पुत्रियों या पुत्रवधूओं के साथ निवास करता हुआ अपने उस मित्र को शत्रु समझकर मार देता है, इसको दृष्टिविपर्यासदण्ड कहते हैं, क्योंकि यह दण्ड दृष्टिभ्रमवश होता है । जैसे कोई पुरुष ग्राम, नगर, खेड, कब्बड, मण्डप, द्रोण-मुख, पत्तन, आश्रम, सन्निवेश, निगम अथवा राजधानी पर घात के समय किसी चोर से भिन्न को चोर समझकर मार डाले तो वह दृष्टिविपर्यासदण्ड कहलाता है। इस प्रकार जो पुरुष अहितैषी या दण्ड्य के भ्रम से हितैषी जन या अदण्ड्य प्राणी को दण्ड दे बैठता है, उसे उक्त दृष्टिविपर्यास के कारण सावद्यकर्मबन्ध होता है। सूत्र - ६५४ इसके पश्चात् छठे क्रियास्थान मृषाप्रत्ययिक हैं । जैसे कि कोई पुरुष अपने लिए, ज्ञातिवर्ग के लिए घर के लिए अथवा परिवार के लिए स्वयं असत्य बोलता है, दूसरे से असत्य बुलवाता है, तथा असत्य बोलते हुए का अनुमोदन करता है। ऐसा करने के कारण उस व्यक्ति को असत्य प्रवृत्ति-निमित्तक पापकर्म का बन्ध होता है। सूत्र - ६५५ इसके पश्चात् सातवा क्रियास्थान अदत्तादानप्रत्ययिक है । जैसे कोई व्यक्ति अपने लिए, अपनी ज्ञाति के लिए मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 71
SR No.034668
Book TitleAgam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 02, & agam_sutrakritang
File Size3 MB
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