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________________ आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्' श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक हैं। अतः आपके द्वारा श्रमणोपासक के उक्त प्रत्याख्यान पर निर्विषयता का आक्षेप न्यायसंगत नहीं है। (८) श्रमणोपासक द्वारा मर्यादित क्षेत्र के बाहर जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं, जिनको दण्ड देने का श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण काल से लेकर मृत्युपर्यन्त त्याग किया है; वे प्राणी वहाँ से आयुष्य पूर्ण होने पर श्रावक द्वारा निर्धारित मर्यादित भूमि के अन्दर जो स्थावर प्राणी हैं, जिनको श्रमणोपासक ने प्रयोजनवश दण्ड देने का त्याग नहीं किया है, किन्तु निष्प्रयोजन दण्ड देने का त्याग किया है, उनमें उत्पन्न होते हैं । अतः उन प्राणियों के सम्बन्ध में श्रमणोपासक द्वारा किया हुआ प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है । वे प्राणी भी हैं, यावत् दीर्घायु भी होते हैं। फिर भी आपके द्वारा श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान को निर्विषय कहना न्यायपूर्ण नहीं है। (९) श्रावक द्वारा निर्धारित मर्यादाभूमि के बाहर त्रस-स्थावर प्राणी हैं, जिनको दण्ड देने का श्रमणोपासक ने व्रतग्रहणारम्भ से लेकर मरणपर्यन्त त्याग कर रखा है; वे प्राणी आयष्यक्षय होने पर शरीर छोड देते हैं । वे उसी श्रमणोपासक द्वारा निर्धारित भमि के बाहर ही जो त्रस-स्थावर प्राणी हैं, जिनको दण्ड देने का श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण से मृत्युपर्यन्त त्याग किया हुआ है, उन्हीं में पुनः उत्पन्न होते हैं । अतः श्रमणोपासक द्वारा किया गया प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है । वे प्राणी भी कहलाते हैं, यावत् चिरकाल तक स्थिति वाले भी हैं । ऐसी स्थिति में आपका यह कथन न्याययुक्त नहीं कि श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान निर्विषय है। (अन्त में) भगवान गौतम ने कहा-भूतकाल में ऐसा कदापि नहीं हआ, न वर्तमान में ऐसा होता है और न ही भविष्य में ऐसा होगा कि त्रस-प्राणी सर्वथा उच्छिन्न हो जाएंगे, और सब के सब प्राणी स्थावर हो जाएंगे, अथवा स्थावर प्राणी सर्वथा उच्छिन्न हो जाएंगे और वे सब के सब प्राणी त्रस हो जाएंगे । त्रस और स्थावर प्राणियों को सर्वथा उच्छेद न होने पर भी आपका यह कथन कि कोई ऐसा पर्याय नहीं है, जिसको लेकर श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान हो, यावत् आपका यह मन्तव्य न्यायसंगत नहीं है। सूत्र-८०६ भगवान गौतम स्वामी ने उनसे कहा-'आयुष्मन् उदक ! जो व्यक्ति श्रमण अथवा माहन की निन्दा करता है वह साधुओं के प्रति मैत्री रखता हुआ भी, ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र को प्राप्त करके भी, हिंसादि पापों तथा तज्जनित पापकर्मों को न करने के लिए उद्यत वह अपने परलोक के विघात के लिए उद्यत है । जो व्यक्ति श्रमण या माहन की निन्दा नहीं करता किन्तु उनके साथ अपनी परम मैत्री मानता है तथा ज्ञान प्राप्त करके, दर्शन प्राप्त कर एवं चारित्र पाकर पापकर्मों को न करने के लिए उद्यत है, वह निश्चय ही अपने परलोक की विशुद्धि के लिए उद्यत है। पश्चात उदक पेढालपत्र निर्ग्रन्थ भगवान गौतम स्वामी को आदर दिये बिना ही जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में जाने के लिए तत्पर हो गए। भगवान गौतमस्वामी ने कहा-"आयुष्मन् उदक ! (श्रेष्ठ शिष्ट पुरुषों का परम्परागत आचार यह रहा कि) जो व्यक्ति तथाभूत श्रमण या माहन से एक भी आर्य, धार्मिक सुवचन सूनकर उसे हृदयंगम करता है और अपनी सूक्ष्म प्रज्ञा से उसका भलीभाँति निरीक्षण-परीक्षण करके (यह निश्चित कर लेता है) कि 'मुझे इस परमहितैषी पुरुष ने सर्वोत्तम योग-क्षेम रूप पद उपलब्ध कराया है. तब वह उपकत व्यक्ति भी उस (उपकारी तथा योगक्षेमपद के उपदेशक)का आदर करता है, उसे अपना उपकारी मानता है, उसे वन्दन-नमस्कार करता है, उसका सत्कारसम्मान करता है, यहाँ तक कि उसे कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप, चैत्यरूप मानकर उसकी पर्यपासना करता है तत्पश्चात् उदक निर्ग्रन्थ ने भगवान गौतम से कहा-'भगवन् ! मैंने ये (आप द्वारा निरूपित परमकल्याणकर योगक्षेमरूप) पद पहले कभी नहीं जाने थे, न ही सूने थे, न ही इन्हें समझे थे । मैंने हृदयंगम नहीं किये, न इन्हें कभी देखे सूने थे, इन पदों को मैंने स्मरण नहीं किया था, ये पद मेरे लिए अभी तक अज्ञात थे, इनकी व्याख्या मैंने नहीं सूनी थी, ये पद मेरे लिए गूढ़ थे, ये पद नि:संशय रूप से मेरे द्वारा ज्ञात या निर्धारित न थे, न ही गुरु: उद्धत थे, न ही इन पदों के अर्थ की धारणा किसी से की थी । इन पदों में निहित अर्थ पर मैंने प्रतीति नहीं की और रुचि नहीं की । भन्ते ! इन पदों को मैंने अब जाना है, अभी आपसे सूना है, अभी समझा है, मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 112
SR No.034668
Book TitleAgam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 02, & agam_sutrakritang
File Size3 MB
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