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________________ आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्' श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक अक्षय एवं अव्यय है । यह जीवात्मा समस्त भूतों में सम्पूर्ण रूप से उसी तरह रहता है, जिस तरह चन्द्रमा समस्त तारागण के साथ सम्पूर्ण रूप से रहता है । सूत्र - ७८५ (आर्द्रक मुनि कहते हैं-) इस प्रकार (आत्मा को एकान्त नित्य एवं सर्वव्यापक) मानने पर संगति नहीं हो सकती और जीव का संसरण भी सिद्ध नहीं हो सकता । और न ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और प्रेष्य रूप भेद ही सिद्ध हो सकते हैं । तथा कीट, पक्षी, सरीसृप इत्यादि योनियों की विविधता भी सिद्ध नहीं हो सकती । इसी प्रकार मनुष्य, देवलोक के देव आदि सब गतियाँ भी सिद्ध नहीं होंगी। सूत्र - ७८६ इस लोक को केवलज्ञान के द्वारा न जानकर अनभिज्ञ जो व्यक्ति धर्म का उपदेश करते हैं, वे स्वयं नष्ट जीव अपने आप का और दूसरे को भी अपार तथा भयंकर संसार में नाश कर देते हैं। सूत्र-७८७ परन्तु जो व्यक्ति समाधियुक्त है, वे पूर्ण केवलज्ञान द्वारा इस लोक को विविध प्रकार से यथावस्थित रूप से जान पाते हैं, समस्त धर्म का प्रतिपादन करते हैं । स्वयं संसारसागर से पार हुए पुरुष दूसरों को भी संसार सागर से पार करते हैं। सूत्र - ७८८ इस लोक में जो व्यक्ति निन्दनीय स्थान का सेवन करते हैं, और जो साधक उत्तम आचरणों से युक्त हैं, उन दोनों के अनुष्ठानों को असर्वज्ञ व्यक्ति अपनी बुद्धि से एक समान बतलाते हैं । अथवा हे आयुष्मन् ! वे विपरीतप्ररूपणा करते हैं। सूत्र-७८९ अन्त में हस्तितापस आईकमुनि से कहते हैं-हम लोग शेष जीवों की दया के लिए वर्ष में एक बड़े हाथी को बाण से मारकर वर्षभर उसके माँस से अपना जीवनयापन करते हैं। सूत्र - ७९० (आर्द्रकमुनि कहते हैं-) जो वर्षभर में भी एक प्राणी को मारे, वे भी दोषों से निवृत्त नहीं है । क्योंकि शेष जीवों के वध में प्रवृत्त न होने के कारण थोड़े-से जीवों को हनन करने वाले गृहस्थ भी दोषरहित क्यों नहीं माने जाएंगे? सूत्र-७९१ जो पुरुष श्रमणों के व्रत में स्थित होकर वर्षभर में एक-एक प्राणी को मारता है, उस पुरुष को अनार्य कहा गया है । ऐसे पुरुष केवलज्ञानी नहीं हो पाते । सूत्र - ७९२ तत्त्वदर्शी भगवान की आज्ञा से इस समाधियुक्त धर्म को अंगीकार करके तथा सम्यक् प्रकार से सुस्थित होकर तीनों करणों से विरक्ति रखता हआ साधक आत्मा का त्राता बनता है । अतः महादुस्तर समुद्र की तरह संसारसमुद्र को पार करने के लिए आदानरूप धर्म का निरूपण एवं ग्रहण करना चाहिए। ऐसा मैं कहता हूँ अध्ययन-६ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 103
SR No.034668
Book TitleAgam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 02, & agam_sutrakritang
File Size3 MB
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