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आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र-७७३
जो व्यक्ति प्रतिदिन दो हजार स्नातक भिक्षुओं को (पूर्वोक्त मांसपिण्ड का) भोजन कराता है, वह असंयमी रक्त से रंगे हाथ वाला पुरुष इसी लोक में निन्दापात्र होता है। सूत्र - ७७४
आपके मत में बुद्धानुयायी जन एक बड़े स्थूल भेड़े को मारकर उसे बौद्ध भिक्षुओं के भोजन के उद्देश्य से कल्पित कर उसको नमक और तेल के साथ पकाते हैं, फिर पिप्पली आदि द्रव्यों से बघार कर तैयार करते हैं। सूत्र - ७७५
अनार्यों के-से स्वभाव वाले अनार्य, एवं रसों में गृद्ध वे अज्ञानी बौद्धभिक्षु कहते हैं कि बहुत-सा माँस खाते हुए भी हम लोग पापकर्म से लिप्त नहीं होते। सूत्र-७७६
जो लोग इस प्रकार के माँस का सेवन करते हैं, वे तत्त्व को नहीं जानते हुए पाप का सेवन करते हैं । जो पुरुष कुशल हैं, वे ऐसे माँस खाने की ईच्छा भी नहीं करते । माँस भक्षण में दोष न होने का कथन भी मिथ्या है। सूत्र - ७७७
समस्त जीवों की दया के लिए, सावद्यदोष से दूर रहने वाले तथा सावध की आशंका करने वाले, ज्ञातपुत्रीय ऋषिगम उद्दिष्ट भक्त का त्याग करते हैं। सूत्र - ७७८
प्राणीयों के उपमर्दन को आशंका से, सावध अनुष्ठान से विरक्त रहने वाले निर्ग्रन्थ श्रमण समस्त प्राणीयों को दण्ड देने का त्याग करते हैं, इसलिए वे (दोषयुक्त) आहारादि का उपभोग नहीं करते । संयमी साधकों का यही परम्परागत धर्म है। सूत्र - ७७९
इस निर्ग्रन्थधर्म में इस समाधि में सम्यक प्रकार से स्थित होकर मायारहित होकर इस निर्ग्रन्थ धर्म में जो विचरण करता है, वह प्रबुद्ध मुनि शील और गुणों से युक्त होकर अत्यन्त पूजा-प्रशंसा प्राप्त करता है। सूत्र - ७८०
ब्राह्मणगण कहने लगे-(हे आर्द्रक !) जो प्रति-दिन दो हजार स्नातक ब्राह्मणों को भोजन कराता है, वह महान पुण्यपुञ्ज उपार्जित करके देव होता है, यह वेद का कथन है। सूत्र-७८१
(आईक ने कहा-) क्षत्रिय आदि कुलों में भोजन के लिए घूमने वाले दो हजार स्नातक ब्राह्मणों को जो प्रतिदिन भोजन कराता है, वह व्यक्ति मांसलोलुप प्राणीयों से व्याप्त नरक में जाकर निवास करता है, जहाँ वह तीव्रतम ताप भोगता है। सूत्र - ७८२
दयाप्रधान धर्म की निन्दा और हिंसाप्रधान धर्म की प्रशंसा करने वाला जो नृप एक भी कुशील ब्राह्मण को भोजन कराता है, वह अन्धकारयुक्त नरक में जाता है, फिर देवों में जाने की तो बात ही क्या है ? सूत्र - ७८३
(सांख्यमतवादी एकदण्डीगण आर्द्रकमुनि से कहने लगे-) आप और हम दोनों ही धर्म में सम्यक् प्रकार से उत्थित हैं । तीनों कालों में धर्म में भलीभाँति स्थित हैं । (हम दोनों के मत में) आचारशील पुरुष को ही ज्ञानी कहा गया है । आपके और हमारे दर्शन में संसार' के स्वरूप में कोई विशेष अन्तर नहीं है। सूत्र-७८४
यह पुरुष (जीवात्मा) अव्यक्तरूप (मन और इन्द्रियों से अगोचर) है, तथा यह सर्वलोकव्यापी सनातन
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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