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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक हो रही है। इस प्रकार से मन एवं वचन को आगे-पीछे न करके साधु रहे । वह शरीर और उपकरणों आदि पर मूर्छा न करके तथा अपनी लेश्या को संयमबाह्य प्रवृत्ति में न लगाता हुआ अपनी आत्मा को एकत्व भाव में लीन करके समाधि में स्थित अपने शरीर-उपकरण आदि का व्युत्सर्ग करे।
इस प्रकार नौका के द्वारा पार करने योग्य जल को पार करने के बाद जिस प्रकार तीर्थंकरों ने विधि बताई है उस विधि का विशिष्ट अध्यवसायपूर्वक पालन करता हआ रहे।
यही (ईर्याविषयक विशुद्धि ही) उस भिक्षु और भिक्षुणी की समग्रता है । जिसके लिए समस्त अर्थों में समित, ज्ञानादि सहित होकर वह सदैव प्रयत्न करता रहे। ऐसा मैं कहता हूँ।
__ अध्ययन-३ - उद्देशक-२ सूत्र-४५४
नौका में बैठे हुए गृहस्थ आदि यदि नौकारूढ़ मुनि से यह कहे कि आयुष्मन् श्रमण ! तुम जरा हमारे छत्र, भाजन, बर्तन, दण्ड, लाठी, योगासन, नलिका, वस्त्र, यवनिका, मृगचर्म, चमड़े की थैली, अथवा चर्म-छेदनक शस्त्र को तो पकड़ रखो; इन विविध शस्त्रों को तो धारण करो, अथवा इस बालक या बालिका को पानी पीला दो; तो वह साधु उसके उक्त वचन को सूनकर स्वीकार न करे, किन्तु मौन धारण करके बैठा रहे। सूत्र-४५५
यदि कोई नौकारूढ़ व्यक्ति नौका पर बैठे हुए किसी अन्य गृहस्थ से इस प्रकार कहे- आयुष्मन् गृहस्थ ! यह श्रमण जड़ वस्तुओं की तरह नौका पर केवल भारभूत है, अतः इसकी बाँहें पकड़कर नौका से बाहर जलमें फेंक दो। इस प्रकार की बात सूनकर और हृदय में धारण करके यदि वह मुनि वस्त्रधारी है तो शीघ्र ही फटे-पुराने वस्त्रों को खोलकर अलग कर दे और अच्छे वस्त्रों को अपने शरीर पर अच्छी तरह बाँधकर लपेट ले, तथा कुछ वस्त्र अपने सिर के चारों ओर लपेट ले।
यदि वह साधु यह जाने कि ये अत्यन्त क्रूरकर्मा अज्ञानी जन अवश्य ही मुझे बाँहें पकड़ नाव से बाहर पानी में फैकेंगे तब वह फैंके जाने से पूर्व ही उन गृहस्थों को सम्बोधित करके कहे आप लोग मुझे बाँहे पकड़ कर नौका से बाहर जल में मत फैंको; मैं स्वयं ही जल में प्रवेश कर जाऊंगा। कोई अज्ञानी नाविक सहसा बलपूर्वक साधु को बाँहें पकड़ कर नौका से बाहर जल में फेंक दे तो साधु मन को न तो हर्ष से युक्त करे और न शोक से ग्रस्त । वह मन में किसी प्रकार का ऊंचा-नीचा संकल्प-विकल्प न करे और न ही उन अज्ञानी जनों को मारने-पीटने के लिए उद्यत हो । वह उनसे किसी प्रकार का प्रतिशोध लेने का विचार भी न करे । इस प्रकार वह जलप्लावित होता हुआ मुनि जीवनमरण में हर्ष-शोक से रहित होकर, अपनी चित्तवृत्ति को शरीरादि बाह्य वस्तुओं के मोह में समेट कर, अपने आपको आत्मैकत्वभाव में लीन कर ले और शरीर-उपकरण आदि का व्युत्सर्ग करके आत्मसमाधि में स्थिर हो जाए। फिर वह यतनापूर्वक जल में प्रवेश कर जाए। सूत्र - ४५६
जलमें डबते समय साध-साध्वी अपने एक हाथ से दूसरे हाथ का, एक पैर से दूसरे पैर का, तथा शरीर के अन्य अंगोंपांगों का भी परस्पर स्पर्श न करे। वह परस्पर स्पर्श न करता हुआ इसी तरह यतनापूर्वक जलमें बहता चला जाए। साधु या साध्वी जल में बहते समय उन्मज्जन-निमज्जन भी न करे और न इस बात का विचार करे कि यह पानी मेरे कानों में, आँखों में, नाक में या मुँह में न प्रवेश कर जाए । बल्कि वह यतनापूर्वक जल में (समभाव के साथ) बहता जाए।
यदि साधु या साध्वी जल में बहते हुए दुर्बलता का अनुभव करे तो शीघ्र ही थोड़ी या समस्त उपधि का त्याग कर दे, वह शरीरादि पर से भी ममत्व छोड़ दे, उन पर किसी प्रकार की आसक्ति न रखे । यदि वह यह जाने कि मैं उपधि सहित ही इस जल से पार होकर किनारे पहुँच जाऊंगा, तो जब तक शरीर से जल टपकता रहे तथा शरीर गीला रहे, तब तक वह नदी के किनारे पर ही खड़ा रहे।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद”
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