________________
आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक मार्ग में बहुत-से प्राणी, बहुत-सी हरियाली, बहुत-से ओसकण, बहुत पानी, बहुत-से कीड़ीनगर, पाँच वर्ण की नीलण-फूलण है, काई आदि निगोद के जीव हैं, सचित्त पानी से भीगी हुई मिट्टी है, मकड़ी के जाले हैं, उन सबकी विराधना होगी; वहाँ बहुत-से श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, दरिद्र, याचक आदि आये हुए हैं, आ रहे हैं तथा आएंगे, संखडिस्थल चरक आदि जनता की भीड़ से अत्यन्त घिरा हुआ है; इसलिए वहाँ प्राज्ञ साधु का निर्गमन-प्रवेश का व्यवहार उचित नहीं है; क्योंकि वहाँ प्राज्ञ भिक्षु की वाचना, पृच्छना, पर्यटना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथारूप स्वाध्याय प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी। अतः इस प्रकार जानकर वह भिक्षु पूर्वोक्त प्रकार की माँस प्रधानादि पूर्वसंखड़ि या पश्चात् संखड़ि की प्रतिज्ञा से जाने का मन में संकल्प न करे।
वह भिक्षु या भिक्षुणी, भिक्षा के लिए गृहस्थ के यहाँ प्रवेश करते समय यह जाने कि नववधू प्रवेश आदि के उपलक्ष्य में भोज हो रहा है, उन भोजों से भिक्षाचर भोजन लाते दिखाई दे रहे हैं, मार्ग में बहुत-से प्राणी यावत् मकड़ी का जाला भी नहीं है तथा वहाँ बहुत-से भिक्षु-ब्राह्मणादि भी नहीं आए हैं, न आएंगे और न आ रहे हैं, लोगों की भीड़ भी बहुत कम है । वहाँ प्राज्ञ निर्गमन-प्रवेश कर सकता है तथा वहाँ प्राज्ञ साधु के वाचना-पृच्छना आदि धर्मानुयोग चिन्तन में कोई बाधा उपस्थित नहीं होगी, ऐसा जान लेने पर संखड़ि की प्रतिज्ञा से जाने का विचार कर सकता है। सूत्र-३५७
भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रवेश करना चाहते हों; यह जान जाए कि अभी दुधारू गायों को दुहा जा रहा है तथा आहार अभी तैयार किया जा रहा है, उसमें से किसी दूसरे को दिया नहीं गया है । ऐसा जानकर आहार प्राप्ति की दृष्टि से न तो उपाश्रय से नीकले और न ही उस गृहस्थ के घर में प्रवेश करे ।
किन्तु वह भिक्षु उसे जानकर एकान्तमें चला जाए और जहाँ कोई आता-जाता न हो और न देखता हो, वहाँ ठहर जाए । जब वह यह जान ले कि दुधारू गाएं दुही जा चुकी हैं और आहार तैयार हो गया है तथा उसमें से दूसरों को दे दिया गया है, तब वह संयमी साधु - आहारप्राप्ति की दृष्टि से वहाँ से नीकले या उस गृहस्थ के घर में प्रवेश करे। सूत्र - ३५८
जंघादि बल क्षीण होने से एक ही क्षेत्र में स्थिरवास करने वाले अथवा मासकल्प विहार करने वाले कोई भिक्षु, अतिथि रूप से अपने पास आए हुए, ग्रामानुग्राम विचरण करने वाले साधुओं से कहते हैं-पूज्यवरो ! यह गाँव बहुत छोटा है, बहुत बड़ा नहीं है, उसमें भी कुछ घर सूतक आदि के कारण रूके हुए हैं । इसलिए आप भिक्षाचरी के लिए बाहर (दूसरे) गाँवों में पधारें।
मान लो, इस गाँव में स्थिरवासी मुनियों में से किसी मुनि के पूर्व-परिचित अथवा पश्चात् परिचित रहते हैं, जैसे कि-गृहपति, गृहपत्नीयाँ, गृहपति के पुत्र एवं पुत्रियाँ, पुत्रवधूएं, धायमाताएं, दास-दासी, नौकर-नौकरानियाँ, वह साधु यह सोचे की मेरे पूर्व-परिचित और पश्चात् परिचित घर हैं, वैसे घरों में अतिथि साधुओं द्वारा भिक्षाचरी करने से पहले ही मैं भिक्षार्थ प्रवेश करूँगा और इन कुलों में अभीष्ट वस्तु प्राप्त कर लूँगा, जैसे कि- शाली के ओदन आदि, स्वादिष्ट आहार, दूध, दही, नवनीत, घृत, गुड़, तेल, मधु, मद्य या माँस अथवा जलेबी, गुड़राब, मालपुए, शिखरिणी आदि । उस आहार को मैं पहले ही खा-पीकर पात्रों को धो-पोंछकर साफ कर लूँगा । इसके पश्चात् आगन्तुक भिक्षुओं के साथ आहार-प्राप्ति के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करूँगा और वहाँ से नीकलूँगा।
इस प्रकार का व्यवहार करने वाला साधु माया-कपट का स्पर्श करता है । साधु को ऐसा नहीं करना चाहिए। उस (स्थिरवासी) साधु को भिक्षा के समय उन भिक्षुओं के साथ ही उसी गाँव में विभिन्न उच्च-नीच और मध्यम कुलों से सामुदानिक भिक्षा से प्राप्त एषणीय, वेष से उपलब्ध निर्दोष आहार को लेकर उन अतिथि साधुओं के साथ ही आहार करना चाहिए । यही संयमी साधु-साध्वी के ज्ञानादि आचार की समग्रता है।
अध्ययन-१- उद्देशक-५ सूत्र-३५९
वह भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के घर में भिक्षा के निमित्त प्रवेश करने पर यह जाने कि अग्रपिण्ड नीकाला
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 57