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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक [चूलिका-३]
अध्ययन-१५ - भावना सूत्र-५०९
उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के पाँच कल्याणक उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में हुए । भगवान का उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में देवलोक से च्यवन हुआ, च्यवकर वे गर्भ में उत्पन्न हुए । उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में गर्भ से गर्भान्तर में संहरण किये गए । उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में भगवान का जन्म हुआ । उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में ही मुण्डित होकर आगार त्यागकर अनगार-धर्म में प्रव्रजित हुए । उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में भगवान को सम्पूर्ण-प्रतिपूर्ण, निर्व्याघात, निरावरण, अनन्त और अनुत्तर प्रवर केवलज्ञान केवलदर्शन समुत्पन्न हुआ । स्वाति नक्षत्र में भगवान परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। सूत्र - ५१०
श्रमण भगवान महावीर ने इस अवसर्पिणी काल के सुषम-सुषम नामक आरक, सुषम आरक और सुषमदुषम आरक के व्यतीत होने पर तथा दुषम-सुषम नामक आरक के अधिकांश व्यतीत हो जाने पर और जब केवल ७५ वर्ष साढ़े आठ माह शेष रह गए थे, तब ग्रीष्म ऋतु के चौथे मास, आठवे पक्ष, आषाढ़ शुक्ला षष्ठी की रात्रि को; उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर महाविजयसिद्धार्थ पुष्पोत्तरवर पुण्डरीक, दिक्स्वस्तिक वर्द्धमान महाविमान से बीस सागरोपम की आयु पूर्ण करके देवायु, देवभव और देवस्थिति को समाप्त करके वहाँ से च्यवन किया । च्यवन करके इस जम्बूद्वीप में भारतवर्ष के दक्षिणार्द्ध, भारत के दक्षिण-ब्राह्मणकुण्डपुर सन्निवेश में कुडालगोत्रीय ऋषभदत्त ब्राह्मण की जालंधर गोत्रीया देवानन्दा नाम की ब्राह्मणी की कुक्षि में सिंह की तरह गर्भ में अवतरित हुए।
श्रमण भगवान महावीर तीन ज्ञान से युक्त थे । वे यह जानते थे कि मैं स्वर्ग से च्यवकर मनुष्यलोक में जाऊंगा। मैं वहाँ से च्यवकर गर्भ में आया हूँ, परन्तु वे च्यवन समय को नहीं जानते थे, क्योंकि वह काल अत्यन्त सूक्ष्म होता है।
देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ में आने के बाद श्रमण भगवान महावीर के हीत और अनुकम्पा से प्रेरित होकर यह जीत आचार है, यह कहकर वर्षाकाल के तीसरे मास, पंचम पक्ष अर्थात्-आश्विन कृष्णा त्रयोदशी के दिन उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर, ८२ वी रात्रिदिन के व्यतीत होने पर और ८२ वे दिन की रात को दक्षिण ब्राह्मणकुण्डपुर सन्निवेश से उत्तर क्षत्रियकुण्डपुर सन्निवेश में ज्ञातवंशीय क्षत्रियों में प्रसिद्ध काश्यप गोत्रीय सिद्धार्थ राजा की वाशिष्ठगोत्रीय पत्नी त्रिशला के अशुभ पुद्गलों को हटाकर उनके स्थान पर शुभ पुद्गलों का प्रक्षेपण करके उसकी कुक्षि में गर्भ को स्थापित किया और त्रिशाला का गर्भ लेकर दक्षिणब्राह्मणकुण्डपुर सन्निवेश में कुडाल गोत्रीय ऋषभदत्त ब्राह्मण की जालंधरगोत्रीया देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में रखा।
आयुष्मन् श्रमणों! श्रमण भगवान महावीर गर्भावासमें तीन ज्ञानसे युक्त थे। मैं इस स्थान से संहरण किया जाऊंगा, यह वे जानते थे, मैं संहृत किया जा चूका हूँ, यह भी जानते थे, यह भी जानते थे कि मेरा संहरण हो रहा है।
उस काल और उस समय में त्रिशला क्षत्रियाणी ने अन्यदा किसी समय नौ मास साढ़े सात अहोरात्र प्रायः पूर्ण व्यतीत होने पर ग्रीष्म ऋतु के प्रथम मास के द्वीतिय पक्ष में अर्थात् चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर सुखपूर्वक (श्रमण भगवान महावीर को) जन्म दिया । जिस रात्रि को त्रिशला क्षत्रियाणीने सुखपूर्वक जन्म दिया, उसी रात्रि में भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों और देवियों के स्वर्ग से आने और मेरूपर्वत पर जाने-यों ऊपर-नीचे आवागमन से एक महान् दिव्य देवोद्योत हो गया, देवों के एकत्र होने से लोकमें एक हलचल मच गई, देवों के परस्पर हास परिहास के कारण सर्वत्र कलकल नाद व्याप्त हो गया।
जिस रात्रि त्रिशला क्षत्रियाणी ने स्वस्थ श्रमण भगवान महावीर को सुखपूर्वक जन्म दिया, उस रात्रि में बहुत से देवों और देवियों ने एक बड़ी भारी अमृतवर्षा, सुगन्धित पदार्थों की वृष्टि और सुवासित चूर्ण, पुष्प, चाँदी और सोने की वृष्टि की।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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