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________________ आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार' श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र-५०४ साधु या साध्वी कईं प्रकार के शब्द-श्रवण करते हैं, जैसे कि कथा करने के स्थानों में, तोल-माप करने के स्थानों में या घुड़-दौड़, कुश्ती प्रतियोगिता आदि के स्थानों में, महोत्सव स्थलों में, या जहाँ बड़े-बड़े नृत्य, नाट्य, गीत, वाद्य, तन्त्री, तल, ताल, त्रुटित, वादिंत्र, ढोल बजाने आदि के आयोजन होते हैं, ऐसे स्थानों में तथा इसी प्रकार के अन्य शब्द, मगर ऐसे शब्दों को सूनने के लिए जाने का संकल्प न करे। साधु या साध्वी कईं प्रकार के शब्द सुनते हैं, जैसे कि-जहाँ कलह होते हों, शत्रु सैन्य का भय हो, राष्ट्र का भीतरी या बाहरी विप्लव हो, दो राज्यों के परस्पर विरोधी स्थान हों, वैर के स्थान हों, विरोधी राजाओं के राज्य हों, तथा इसी प्रकार के अन्य विरोधी वातावरण के शब्द, किन्तु उन शब्दों को सुनने की दृष्टि से गमन करने का संकल्प न करे। साधु या साध्वी कईं शब्दो को सुनते हैं, जैसे कि-वस्त्राभूषणों से मण्डित और अलंकृत तथा बहुत-से लोगों से घिरी हुई किसी छोटी बालिका को घोड़े आदि पर बिठाकर ले जाया जा रहा हो, अथवा किसी अपराधी व्यक्ति को वध के लिए वधस्थान में ले जाया जा रहा हो, तथा अन्य किसी ऐसे व्यक्ति की शोभायात्रा नीकाली जा रही हो, उस संयम होने वाले शब्दो को सूनने की उत्सुकता से वहाँ जाने का संकल्प न करे। साधु या साध्वी अन्य नाना प्रकार के महास्रवस्थानों को इस प्रकार जाने, जैसे कि जहाँ बहुत-से शकट, बहुत से रथ, बहुत से म्लेच्छ, बहुत से सीमाप्रान्तीय लोग एकत्रित हुए हों, वहाँ कानों से शब्द-श्रवण के उद्देश्य से जाने का मन में संकल्प न करे। साधु या साध्वी किन्हीं नाना प्रकार के महोत्सवों को यों जाने कि जहाँ स्त्रियाँ, पुरुष, वृद्ध, बालक और युवक आभूषणों से विभूषित होकर गीत गाते हों, बाजे बजाते हों, नाचते हों, हँसते हों, आपस में खेलते हों, रतिक्रीड़ा करते हों तथा विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम पदार्थों का उपभोग करते हों, परस्पर बाँटते हों या परोसते हों, त्याग करते हों, परस्पर तिरस्कार करते हों, उनके शब्दों को तथा इसी प्रकार के अन्य बहुत-से महोत्सवों में होने वाले शब्दों का कान से सूनने की दृष्टि से जाने का मन में संकल्प न करे । साधु या साध्वी इहलौकिक एवं पारलौकिक शब्दों में, श्रुत-या अश्रुत-शब्दों में, देखे हुए या बिना देखे हुए शब्दों में, इष्ट और कान्त शब्दों में न तो आसक्त हो, न गृद्ध हो, न मोहित हो और न ही मूर्च्छित या अत्यासक्त हो। यही (शब्द-श्रवण विवेक ही) उस साधु या साध्वी का आचार-सर्वस्व है, जिसमें सभी अर्थों-प्रयोजनों सहित समित होकर सदा वह प्रयत्नशील रहे। ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-११ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 108
SR No.034667
Book TitleAgam 01 Acharang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 01, & agam_acharang
File Size4 MB
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