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________________ आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार' श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त है, यावत् मकड़ी के जालों से रहित है, किन्तु तीरछा कटा हुआ नहीं तो भी उसे नले, यदि तीरछा कटा हुआ हो तो पूर्ववत् प्रासुक एवं एषणीय जानकर मिलने पर ले सकता है। सूत्र-४९५ साधु या साध्वी पथिकशाला आदि स्थानों में पूर्वोक्त विधिपूर्वक अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण करके रहे । पूर्वोक्त अप्रीतिजनक प्रतिकूल कार्य न करे तथा विविध अवग्रहरूप स्थानों की याचना भी विधिपूर्वक करे । अव-गृहीत स्थानों में गृहस्थ तथा गृहस्थपुत्र आदि के संसर्ग से सम्बन्धित स्थानदोषों का परित्याग करके निवास करे। भिक्षु इन सात प्रतिमाओं के माध्यम से अवग्रह ग्रहण करना जाने पहली प्रतिमा यह है-वह साधु पथिकशाला आदि स्थानों का सम्यक् विचार करके अवग्रह की पूर्ववत् विधिपूर्वक क्षेत्र-काल की सीमा के स्पष्टीकरण सहित याचना करे । इसका वर्णन स्थान की नियत अवधि पूर्ण होने के पश्चात् विहार कर देंगे तक समझना । दूसरी प्रतिमा यह है-जिस भिक्षु का इस प्रकार का अभिग्रह होता है कि मैं अन्य भिक्षुओं के प्रयोजनार्थ अवग्रह की याचना करूँगा और अन्य भिक्षुओं के द्वारा याचित अवग्रह-स्थान में निवास करूँगा। तृतीय प्रतीमा यों हैजिस भिक्षु का इस प्रकार का अभिग्रह होता है कि मैं दूसरे भिक्षुओं के लिए अवग्रह-याचना करूँगा, परन्तु दूसरे भिक्षुओं के द्वारा याचित अवग्रह स्थान में नहीं ठहरूँगा। चौथी प्रतिमा यह है-जिस भिक्षु के ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि मैं दूसरे भिक्षुओं के लिए अवग्रह याचना नहीं करूँगा किन्तु दूसरे द्वारा याचित अवग्रहस्थान में निवास करूँगा । पाँचवी प्रतिमा यह है-जिस भिक्षु को ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि मैं अपने प्रयोजन के लिए ही अवग्रह की याचना करूँगा, किन्तु दूसरे दो, तीन, चार और पाँच साधुओं के लिए नहीं। छठी प्रतिमा यों है-जो साधु जिसके अवग्रह की याचना करता है उसी अवगृहीत स्थान में पहले से ही रखा हुआ शय्या-संस्तारक मिल जाए, जैसे कि इक्कड़ यावत् पराल आदि; तभी निवास करता है। वैसे शय्या-संस्तारक न मिले तो उत्कटुक अथवा निषद्या-आसन द्वारा रात्रि व्यतीत करता है। सातवी प्रतिमा इस प्रकार है-भिक्षुने जिस स्थान की अवग्रह-अनुज्ञा ली हो, यदि उसी स्थान पर पृथ्वी-शिला, काष्ठशिला तथा पराल आदि बिछा हुआ प्राप्त हो तो वहाँ रहता है, वैसा सहज संस्तृत पृथ्वीशिला आदि न मिले तो वह उत्कटुक या निषद्या-आसन पूर्वक बैठकर रात्रि व्यतीत कर देता है । इन सात प्रतिमाओं में से जो साधु किसी प्रतिमा को स्वीकार करता है, वह इस प्रकार न कहे-मैं उग्राचारी हूँ, दूसरे शिथिलाचारी हैं, इत्यादि शेष समस्त वर्णन पिण्डैषणा में किए गए वर्णन के अनुसार जान लेना। सूत्र- ४९६ हे आयुष्मन् शिष्य ! मैंने उन भगवान से इस प्रकार कहते हुए सूना है कि इस जिन प्रवचन में स्थविर भगवंतों ने पाँच प्रकार का अवग्रह बताया है, देवेन्द्र-अवग्रह, राजावग्रह, गृहपति-अवग्रह, सागारिक-अवग्रह और साधर्मिक अवग्रह । यही उस भिक्षु या भिक्षुणी का समग्र आचार है, जिसके लिए वह अपने सभी ज्ञानादि आचारों एवं समितियों सहित सदा प्रयत्नशील रहे। अध्ययन-७का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण प्रथमा चूलिका का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 102
SR No.034667
Book TitleAgam 01 Acharang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 01, & agam_acharang
File Size4 MB
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