________________
तन-मन को पवित्र बनाओ, अनाथों, विधवाओं और विकलांगो का पालन करो, दयाधर्म को अपने में-आत्मा में-जगाओ और इसके पश्चात् आकर मुझ से बात करो । क्या बलिदान देते रह कर तुम हत्यारे और धार्मिक एकसाथ कहला सकोगे ? ओह, मंदिरों को तुमने बूचडखाना बना दिया है। यहां धर्म की हाट के नाम पर पाप के बाजार लगे हुए हैं और अन्धविश्वास को धामिकता के नाम से सम्बोधित करने वाला प्रत्येक व्यक्ति एक कसाई नजर आता है, जो निरीह पशु को मारकर अपने लिए जीवन की याचना करता है।" इस प्रकार उनके उपदेशों के शब्द-शब्द में मैत्री, करुणा, दया, अहिंसा कूट-कूट कर भरी है।
इतिहासविद् तथा शोधकर्ता इस बात पर प्रायः एकमत हैं कि महात्मा ईसा का सुप्रसिद्ध गिरिप्रवचन तथा पीटर, एण्ड, जेम्स आदि शिष्यों को दिये गये उपदेश जैन सिद्धान्तों के अत्यन्त समीप हैं । अपार करुणा में डूबे हुए उनके शब्द विश्व में पीडाकुल मानव के लिए शान्ति के उपलेख हैं तथा अहिंसा का मार्गदर्शन करने वाले हैं । यह खेदजनक है कि उनके अनुयायी कहलाने वाले उनके उपदेशों और आदेशों को यथावत् पालन नहीं करते और हिंसा तथा सामरिक योजनाओं में अपने उपाजित ज्ञान-विज्ञान का प्रयोग करने में आतुर हैं । यद्यपि ईसा ने उनको कहा है कि जो लोग तलवार का उपयोग करेंगे वे तलवार से ही मरेंगे तथापि आज प्रतियोगितात्मक दौड में वे परस्पर एक-दूसरे से आगे निकल जाना चाहते हैं । ईसा के हृदय में किसी प्रकार का भय नहीं था और न किसी के प्रति वैर-विरोध-मूलक भावना ही थी। वह तो सत्य के उपासक थे और इसी सत्य के प्रतिपादन के लिए खुले चुनौती भरे शब्दों में चौपालों में बोलते थे। उन्होंने यरुशलम के उन पुजारियों और पुरोहितों को उनके ही समक्ष कडे शब्दों में कहा कि बाहर से पात्रों को चमका चमकाकर उजालने वालों के हृदय में मलिनता भरी हुई है । काम, क्रोध, मद, मोह और लोभ के मालिन्य को साफ किये बिना शरीर और वस्त्रों को निर्मल करना व्यर्थ है। यह सफाई उस कब्र के समान है जो बाहर लिपी-पुती होने पर भी भीतर से हड्डियों और सडन से दूषित है । यह बडे दुःख की बात है।
ईसा को पाप से सख्त नफरत थी । उन्होंने कहा है कि यदि _ तुम्हारी एक आंख पर पाप बैठ गया हे तो अच्छा हो कि तुम उसे निकाल