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जैन-श्रमणों के साथ रहते समय हुई । आज जिसे फिलिस्तीन कहते हैं, उसका जूना नाम पैलेस्टाइन है, जो पालीताना शब्द का ही उच्चरित रुपान्तर है । इस प्रदेश का यह नामकरण भारतीय जैन प्रदेश से प्रेम और मसीह की शिक्षाभूमि को स्मरण रखने की उदात्त प्रेरणा से अनुबन्धित है, ऐसा कहना अत्युक्ति न होगी ।
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भारतीय श्रमण-संस्कृति ने ईसा को अत्यधिक प्रभावित किया और उनके मन में भारत आने से पूर्व जो धार्मिक मन्थन चल रहा था, उसे निश्चयात्मकता मिली। धर्म का मानवीय और ईश्वरीय रुप उन्हें श्रमणों के सान्निध्य में प्राप्त हुआ और यूनान लौटकर जो कुछ उन्होंने उपदेश रुप में कहा, उसमें अधिकांश श्रमण-संस्कृति की गूंज थी । जैनों की पांच अणुव्रत (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) उन्हें अत्यन्त प्रिय थे और अपने व्याख्यानों में बडे आग्रह के साथ उन्होंने इनको कहा है । इसे यों कहना अधिक संगत होगा कि भगवान महावीर के अहिंसा धर्म के विचार उस पश्चिमी महात्मा के कण्ठ में बसकर फिलस्तीन की गलियों में अनुवादित हो रहे थे । धर्म के प्रति एक उदार दृष्टिकोण तैयार हो रहा था । ईसा मसीह ने प्रचलित यहूदी धर्म में भी जितनी अच्छाइयाँ थी उन्हें बीन-बीन कर अलग करना, उपयोग करना जारी रखा । मसीह के इस क्रांन्तिकारी आन्दोलन से तत्कालीन गद्दीधारी धार्मिक समाज बहुत क्षुब्ध हो उठा क्योंकि उनके ढकोसलों के ढकने उलटने का कार्य बडे जोर-शोर से ईसा ने करना आरम्भ कर दिया था । इससे उनकी आय पर बुरा असर हो रहा था ।
ईसा को अपने उपदेश देने के लिए किसी बडे जमाव की प्रतीक्षा नहीं थी, वह तो जहां कहीं घूमते-फिरते खडे होकर दस - पांच लोगों के एकत्र हो जाने पर भी अपना उपदेश देने लगते थे । उनके अधिकांश प्रवचनों का सार प्रायः क्षमा, सरलता, अहिंसा, बलिदान न करना, परिग्रह न रखना इत्यादि के सम्बन्ध में इस प्रकार है - " बलिदान बन्द करो । ईश्वर को तुम्हारे द्वारा जलाये जाते हुए उन पशुओं की दुर्गन्ध से सख्त नफरत है । यह पाप है और जब तुम मेरी दया के लिए हाथ फैलाओगे, मैं आंख मूंदकर तुम्हें देखूंगा भी नहीं । जब तुम प्रार्थना करोगे मैं नहीं सूनुंगा । मुझे न छुओ, क्योंकि तुम्हारे हाथ रक्त में डूबे हैं । पहले हाथ धोओ और
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