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दो । सारे शरीर को नरक में झोंकने से तो एक अंग नष्ट होना ही अच्छा है । अहिंसा के लिए महात्मा यीशु के हृदय में बहुत बडा स्थान था । उनका कथन हैं कि जो कोई तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारे तुम उसके सामने दूसरा गाल और कर दो, अर्थात् हिंसा को अहिंसा से जीतो । बुराई का मुकाबला न करो, वरन् जो बुराईयों का दास है उसके सामने अपनी अच्छाइयों का जखीरा खोल दो । ऐसा करने से उसे पश्चाताप होगा और आत्मविशुद्धि के लिए पश्चाताप आवश्यक है, यहां तक कि कुरता छीनने वाले को अपना कोट भी उतार कर दे दो । प्रसिद्ध है कि जैन कवि बनारसीदास ने अपने घर में चोरी के लिए आये हुए चोर को अपने ही हाथ से सामान उठवाने में सहायता की । पूर्व और पश्चिम के सुदूर अंचलों पर बसे हुए भिन्नकालिक दो व्यक्तियों में अहिंसा धर्म की यह सहज-समान अनुभूति क्या मानव के संवेदनशील हृदय की द्रवणशीलता को नहीं कहती । इसी को समझाते हुए ईसा ने कहा कि जो तलवार खींचेंगे वे तलवार से ही मिटेंगे । सच है, लोहे को लोहे का मुरच ही खा जाता है।
किसी महान् आत्मा के उपदेश किसी देश-विशेष या व्यक्तिविशेष के लिए नियत नहीं होते, अपित वे सार्वजनीक होते हैं और सारी मानवजाति के लिए होते हैं, किन्तु अमृत को पचाना भी तो सभी के वश में नहीं होता । कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं जो विषकीट के समान विष खाकर ही प्रसन्न-स्वस्थ रहते हैं । यही कारण था कि अमृत पिलाने वाले महात्मा को शूली मिली । यरुशलम के बडे पुजारी कैयाफे ने उन्हें पकडवाकर कौसिल के समक्ष प्रस्तुत करते हुए उन पर अभियोग लगाया कि वह कुफ्र फैलाता है। कुफ्र अर्थात् नास्तिक्य या धर्म विरोध एक महान् अपराध माना जाता था जिसका दण्ड मृत्यु-त्रासदायी मृत्यु के अतिरिक्त कुछ नहीं था । दण्ड को देने वाले अधिकारी ईसा के निर्मल चरित्र और उसके विशुद्ध उपदेशों को जानते थे और उन्होंने ईसा को अवसर दिया कि वह अपनी निर्दोषता सिद्ध कर सकते हैं, किन्तु ईसा ने कहा कि मैंने किसी प्रकार का कोई अपराध नहीं किया है, मैंने जो कुछ कहा है सभी के पक्ष में कहा है और उसको बदलने के लिए मैं प्रस्तुत नहीं हुं ।
कौंसिल किसी निरपराध को दण्डित नहीं कर सकती थी, किन्तु