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कल्पसूत्रं
॥१०९॥
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आहाराणि परिभुञ्जन्तः एवं चतुर्विधैराहारैः गुरु-साधर्मिकादीनां भक्तिपूर्वकं सर्वे पूर्वोक्ताः जनाः सिद्धार्थेन कल्पद्रुम राज्ञा भोजिताः ।
कलिका वृत्तियुक्त. व्याख्या. ५
१. अथ पुनर्वाग्विलासग्रन्थाद् भोजनयुक्तिः कथ्यते भाषया - किसी एक सिद्धार्थ राजायै भोजनभक्ति किधी-ऊपरि लइ माली, मध्याहकाली, केलिपत्रे छाया, इसा मंडपनींपाया, कुमकुम तणा छडा, मोती तथा पाखती कडा, नीचै मांड्या पाट, उपरि पाथर्या रेसमी घाट, चाचरिचा कला, उपरि बइठा कुमर पातला, चउरंस चउकी पट, टाली मननी खटपट, उंची आमणी भूखनी बिहाडणी, निरमल पाणीयै पखाली, आगे मेल्ही सोनानी थाली, कीजे रंगरोला, झाझा मोल्या रुपा-सोनाना कचोला, कीस नही कुरुप तीहां बैठा-बत्रीस लक्षणा पुरुष, कुंदाला, कुंदाला झाकझमाला, गुबीयाला, सुंहाला आंखे अणियाली, केसपास काला, मुंछाला केई जमाई, केई शाला, केई जोधाला चालती छालती अप्रिजाला, इसा पांति बैठा राजवीं ढींचाला, सुजाण सहेली लाडगहेली, हंसगति हालति, गजगति म्हालती, काम कामिनी पालती, आंखिरे मटकारै, मदननी वागुरा घालती, कस्तुरी अलंकृत भालपट्ट, तरुणतणा भाजैं मरट्ट, पूर्णचंद्र समान वदन, हेलामात्र जीतो मदन, काने कुंडल साक्षात् सूर्य-चंद्रमंडल, लहकती वेणी ओढणी ओढी झीणी दीसती रुडी, झलकै हाथ सोनानी चूडी, कूण करै मूल रत्नजडित, सीस फुल जिसी देवनारी; इसी मनोहर राजकुमारी, छलकते हाथै सोनानी झारी साथै, पहिला दीघा हाथधोवण, स्वर्गथकी जाणे आव्या इंद्र जोवण, विनय करी लुलिअ लुलिअ परिसइ-फलहुली फोडी, अखरोट, कीधो जोर मगदनो कोट, मिश्री पातिसुं लग थोली इसी पुरसी चारोली, केलानी कातली छोली, मेली राइणनीं कोली, परिस्या नीला नारेल, पासै मूक्या
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