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सिद्धान्तकल्पवल्ली
[स्वप्नाधिष्ठानवाद
केचिदहंकृत्युपहिततत्प्रतिबिम्बे तदध्यासः । नाऽहंकारविशिष्टे येन स्यादहमिति प्रतीतिरिति ॥ २६॥ शुक्तीदंयैतन्यप्रतिविम्बे वृत्तिमन्मनोनिष्ठे । अध्यासो रजतादेरत एवाऽनन्यवेद्यतेत्याहुः ॥ २७ ॥
नाऽहंकारविशिष्टे स्वप्नाध्यासः । येन गजोऽहमित्यादिप्रत्ययः प्रसज्येत । किन्तु अहंकारोपहिते तत्प्रतिबिम्बचैतन्य इत्याद्यपक्षेऽपि दोषमुद्धरतिकेचिदिति । विशेषणवदुपाघेः कार्यान्वयाभावादिति भावः ॥ २६ ॥ ___ एवं स्वप्नाध्यासस्य मतभेदेनाऽधिष्ठानमुक्त्वा रजताध्यासस्याऽपि तदाहशुक्तीति । शुकीदचैतन्य शुक्तीदमंशावच्छिन्नचैतन्यम् , तस्य प्रतिबिम्ब इत्यर्थः । अत एव प्रतिबिम्बाध्यासादेवेत्यर्थः । बिम्बेऽध्यासे तु शुक्त्यादिवदन्यवेद्यता स्यादित्यर्थः ॥ २७ ॥
मत है। यहाँ प्रमात्व और स्वप्नदृष्टत्वका अनुभव तो अधिष्ठानभूत शुद्ध चैतन्यको विषय करनेवाली तत्समनियत अन्तःकरणवृत्तिसे सम्पादित अभेदाव्यक्तिसे होता है ॥ २५ ॥
पूर्वोक्त २४ वें श्लोकमें अहङ्कारोपहित चैतन्यमें यदि स्वप्नाभ्यास मानें, तो स्वमदृष्ट गजमें 'यह गज है' ऐसा भान न होगा, किन्तु 'मैं गज हूँ' ऐसी भानापत्ति होगी, ऐसी जो शङ्का की थी, उस शंकाका परिहार कर मतान्तर दर्शाते हैं'केचिदहम्' इत्यादिसे ।
कई एकका मत है कि अहङ्कारोपहित चैतन्यमें स्वप्राध्यास होता है; अहङ्कारविशिष्ट में नहीं, जिससे स्वप्नदृष्ट गजमें 'मैं गज हूँ' ऐसी प्रतीतिकी आपत्ति होगी, क्योंकि विशेषणकी नाँई उपाधिका कार्यान्वय नहीं होता, अतः 'यह गज है' ऐसा भान होगा ॥ २६ ॥
यों मतभेदसे स्वप्नाध्यासके अधिष्ठानका निरूपण करके अब रजताच्यासमें भी अधिष्ठानविषयक मतभेद दर्शाते हैं
'शुक्तीदम्' इत्यादिसे। शुक्तिका इदमंशावच्छिन्न जो चैतन्य है, उसका वृत्तिवाले मनमें जो प्रतिबिम्ब होता है उसमें रजताध्यास होता है। अतः इस अध्यासके प्रतिबिम्बमें होनेसे बिम्बाध्यासपक्षमें शुक्त्यादिकी नाई अन्यवेद्यता नहीं होती, किन्तु अनन्यवेद्यता होती है, ऐसा कई एक कहते हैं ।। २७ ।।
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