________________
५८
सिद्धान्त कल्पवल्ली
आवरणाभिभवार्थ मा भूत्तन्निर्गमापेक्षा । स्याच्चिदुपरागसिध्यै तदभेदव्यक्तयेऽथवेत्यन्ये ।। ११५ ॥ इत्थं प्रत्यगभिने ब्रह्मणि वेदान्तवाक्यानाम् । तात्पर्येणाऽन्वयतो जीवपराभेदसंसिद्धिः ॥ ११६ ॥
इति श्रीमत्परमहंस परिव्राजकाचार्य - श्रीपरमशिवेन्द्रपूज्यपादशिष्य श्री सदाशिव ब्रह्मेन्द्रविरचितवेदान्तसिद्धान्तकल्पवल्ल्यां
प्रथमः स्तबकः समाप्तः ॥
[ वृत्तिनिर्गमनवाद
चिदुपरागोऽभेदाभिव्यक्तिर्वा वृत्तिफलमिति मतयोस्तु तदर्थमेव वृत्तिनिर्गमन - कल्पनमित्याह -- आवरणेति ॥ ११५ ॥
परिसमाप्य सर्ववेदान्तसिद्धं प्रत्यब्रह्मा भेदमुपसंहरति
प्रासङ्गिकं इत्थमिति ॥ ११६ ॥
इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्य श्रीमत्परम शिवेन्द्र पूज्यपादशिष्य श्रीसदाशिवब्रह्मेन्द्र प्रणीत श्रीवेदान्तसिद्धान्तकल्पवल्ली व्याख्यायां केसरवल्ल्याख्यायां प्रथमः स्तबकः ॥
'आवरणा० ' इत्यादि । आवरण के अभिभव के लिए वृत्तिनिर्गमनकी अपेक्षा भले ही न हो, किन्तु चिदुपरागकी ( चैतन्य के साथ विषय के सम्बन्ध की ) सिद्धिके लिए अथवा अभेदाभिव्यक्तिके लिए वृत्तिके निर्गमनकी कल्पना आवश्यक है, ऐसा कई लोग कहते हैं ।। ११५ ।।
प्रासंगिक समाप्त करके सब वेदान्तोंसे सिद्ध प्रत्यग्ब्रह्म के अभेदका उपसंहार करते हैं-' इत्थम्' इत्यादिसे ।
—
इस प्रकार प्रत्यगात्मासे अभिन्न ब्रह्ममें वेदान्तवाक्योंका तात्पर्यरूपसे यथार्थ अन्वय हो जाता है, इसलिए जीव और परमात्मा के अभेदकी सिद्धि हो जाती है ॥ ११६ ॥
महामहोपाध्याय पण्डितवर श्रीहाथीभाई शास्त्रिविरचित-सिद्धान्त कल्पवल्लीभाषानुवादमें प्रथम स्तबक समाप्त ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com