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सिद्धान्तकल्पवल्ली
[वृत्ति-निर्गमनवाद
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नन्वेवं स्पष्टत्वं विषयावरणभिभूतिरस्याश्च । अविनिर्गतया वृत्या सिद्धेः किं वृत्तिनिर्गमेनेति ॥ १११ ॥ अत्रैतदनिर्गमनेन ज्ञानाज्ञानयोर्विरोधस्य । निर्वाहः स्यादिति तल्लाभार्थं वृत्तिनिर्गमापेक्षा ॥ ११२ ।।
नन्वेवमावरणाभिभूतिरेव स्पष्टतेति पर्यवसन्नम् । तस्याश्चाऽनिर्गतवृत्त्यैव सिद्धेः किं वृत्तिनिर्गमनेन ! इति शङ्कते-नन्विति । नन्वेवं वृत्तभिन्नदेशस्थत्वात् कथं तया विषयगताज्ञाननिवृत्तिरिति चेत् , न; यदज्ञानं यं पुरुषं प्रति यद्विषयावारकम् , तत् तदीयतद्विषयकज्ञाननिवर्त्यमिति ज्ञानाज्ञानयोविरोधप्रयोजकस्य नियमस्य सत्त्वात् इति भावः ॥ १११ ॥
वृत्तिनिर्गमानभ्युपगमे ज्ञानाज्ञानयोविरोधप्रयोजकस्य दुर्निरूपत्वेन तयोविरोधनिर्वाहो न स्यात् । न च यदज्ञानं यं पुरुषं प्रति इत्यादि तत्प्रयोजकमुक्तमिति वाच्यम् , परोक्षज्ञानेनाऽपि विषयगताज्ञाननिवृत्तिप्रसङ्गात् । तन्निर्गमाभ्युपगमे तु यदज्ञानं यं पुरुष प्रति यद्विषयावारकम् , तत् तदीयतदज्ञानाश्रयचैतन्यसंसर्गनियता
वृत्तिनिर्गम अनावश्यक है, ऐसी शङ्का करते हैं-'नन्वेवम्' इत्यादिसे ।
पूर्व-श्लोकोक्त स्पष्टत्वका निर्गलित अर्थ तो आवरणका अभिभव ही हुआ, यह आवरणाभिभूति तो अविनिर्गत वृत्तिसे भी सिद्ध होती है, फिर वृत्तिविनिर्गम माननेका क्या प्रयोजन है ? यदि शङ्का हो कि वृत्ति भिन्नदेशस्थ है, अतः उस वृत्तिसे विषयगत अज्ञानकी निवृत्ति कैसे होगी? तो इस शङ्काका निवारक एक नियम है कि जो अज्ञान जिस पुरुषके प्रति जिस विषयका आवारक है, वह अज्ञान उस पुरुषके तद्विषयक ज्ञानसे निवर्त्य होता है। यह ज्ञान और अज्ञानके विरोधका प्रयोजक नियम होनेसे श्लोकोक्त शङ्का बनी रही ॥ १११ ।।
अब इस शङ्काका समाधान करते हुये वृत्तिनिर्गमकी आवश्यकता दर्शाते हैं'अत्रैतद०' इत्यादिसे । ___ यदि वृत्तिनिर्गम न मानें, तो ज्ञान और अज्ञानके विरोधका निर्वाह नहीं होता इसलिए वृत्तिनिर्गमकी अपेक्षा है अर्थात् वृत्तिनिर्गम न माननेमें ज्ञान और अज्ञानके विरोधका निरूपण न हो सकनेसे इन दोनोंके विरोधका निवोह नहीं होता। यदि कहो कि 'जो अज्ञान जिस पुरुषके प्रति जिस विषयका आवरक हो, वह अज्ञान उस पुरुषके तद्विषयक ज्ञानसे निवर्त्य होता है' इत्यादि तत्प्रयोजक नियम ऊपर
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