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भाषानुवादसहिता
ननु नाऽसावपि नियमः सुखादिवृत्तेस्तु तदनिवर्तनतः । मैवं सुखदुःखादेर्न वृत्तिरस्त्यस्य साक्षिभास्यत्वात् ॥ ८२ ॥ १४. साक्षिस्वरूपनिर्णयवादः
प्रथम स्तबक ]
अथ कोऽयं साक्षीति प्रश्ने कूटस्थदीपोक्तम् । तनुद्वयाधिष्ठानं चैतन्यं यत्तु कूटस्थम् ॥ ८३ ॥
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वाच्यम्, तत्संसर्गाभावेऽप्यवस्थावस्थावतोरनतिभेदात् अवस्थावतो मूलाज्ञानस्य साक्षिसंसर्गमात्रेण तदवस्थारूपस्य तुलाज्ञानस्याऽपि साक्षिभास्यत्वोपपत्तेः । अस्य च नाशस्त्वपरोक्षवृत्त्यैव । अतः परोक्षवृत्तिषु न व्यभिचार इति मतान्तरमाहअपरे त्विति । परोक्षवृत्त्या अज्ञाननाशानुभवस्तु अर्थसत्तानिश्चयपरोक्षवृत्तिप्रतिबन्धकप्रयुक्ताज्ञाननाशानुभवनिबन्धनो भ्रम इति भावः ॥ ८१ ॥
सुखादिवृत्तेरज्ञान निवर्तकत्वाभावाव्यभिचार इत्याशङ्कय सुखादिवृत्तेः साक्षिभास्यत्वेन तत्र वृत्त्यनभ्युपगमान्न व्यभिचार इति परिहरति - नन्विति ॥ ८२ ॥ साक्षिणमेव सप्रश्नं निरूपयति – अथेति । देहद्वयाधिष्ठानभूत कूटस्थचैतन्यं संसर्ग न होनेपर उसमें साक्षिभास्यत्व नहीं होगा, तो ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि साक्षी के साथ संसर्ग न होनेपर भी अवस्था और अवस्थावान् —- इन दोनोंका अति भेद न होनेसे अवस्थावान् मूलाज्ञानका साक्षिसंसर्गमात्रसे उस मूलाज्ञानके अवस्थारूप तूलाज्ञानमें भी साक्षिभास्यत्व बन सकता है, जिससे परोक्ष वृत्तियोंमें व्यभिचार नहीं होता, ऐसा मतान्तर दिखलाते हैं - 'अपरे तु ' इत्यादिसे ।
अन्य मतवाले कहते हैं कि यह अज्ञान तो केवल विषयमें रहता है और उसका नाश तो अपरोक्षरूप वृत्तिसे होता है; इससे नियमका भङ्ग नहीं होता अर्थात् परोक्ष वृत्तिसे अज्ञानके नाशका जो अनुभव होता है, वह अर्थकी सत्ताके निश्चय में परोक्षवृत्तिप्रतिबन्धकप्रयुक्त जो अज्ञान है, उस अज्ञानका नाश होनेपर भ्रम होता है; ऐसा भाव है ॥ ८१ ॥
सुखादि-वृत्तियोंमें अज्ञाननिवर्त्तकत्व न होनेसे उनमें व्यभिचार होगा; ऐसी आशङ्का होनेपर कहते हैं - 'ननु नाऽसावपि ' इत्यादिसे ।
सर्वत्र अपरोक्षरूप वृत्तिसे अज्ञानका नाश होता है, यह नियम नहीं है, क्योंकि सुखादि-वृत्तियों में अज्ञानकी निवर्त्तकता नहीं देखने में आती, इसपर कहते हैं - 'मैवम्' अर्थात् ऐसा मत कहो, क्योंकि सुख, दुःख आदि साक्षिभास्य हैं, अतः उनमें वृत्ति नहीं जाती; अतः व्यभिचारकी शङ्का नहीं है ॥ ८२ ॥
साक्षीका प्रश्नपूर्वक निरूपण करते हैं - 'अथ' इत्यादिसे ।
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