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भाषानुवादसहिता
अथवा घटादिविषयाज्ञानावरणाभिभूतये जीवः । द्वारीकरोति वृतिं त्रेधेत्थं विवरणे परीहारः ॥ ५९ ॥
प्रथम स्तबक ]
८. सम्बन्धवादः
अत्र प्रथमे पक्षे सर्वगतस्याऽपि जीवस्य | वृत्यायत्तः को वा विषयैरुपराग इत्यत्र ॥ ६० ॥
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जीवः सर्वगतोऽप्यविद्यावृतत्वात् स्वयमप्यप्रकाशमानतया विषयान्नाऽवभासयन् विषयविशेषे वृत्त्युपरागादावरणतिरोधानेन तत्रैवाऽभिव्यक्तस्तमेव प्रकाशयतीवि तदभिभवार्थं वृत्तिमपेक्षत इति तदुक्तमेव परिहारान्तरमाह — अथवेति ॥ ५९ ॥ इत्थं प्रदर्शितेषु पक्षेषु प्रथमं पक्षं प्रश्नव्याजेनाऽऽक्षिपति – अत्रेति । निष्क्रिययोर्भिन्नदेशीय योर्विषयचैतन्ययोस्तादात्म्यस्य संयोगस्य वा आधानासंभवादिति भावः ॥ ६० ॥
जीव है तो सर्वगत, किन्तु अविद्यासे आवृत होनेके कारण स्वयं भी अप्रकाशमान होकर विषयों का अवभासन नहीं करता, परन्तु किसी एक विषय में वृत्तिके सम्बन्धसे आवरणके तिरोहित हो जानेपर उसी विषय में अभिव्यक्त होकर उस विषयका प्रकाश करता है; ऐसा विवरणकार द्वारा उक्त दूसरा परिहार दर्शाते हैं— ' अथवा ' इत्यादिसे ।
अथवा घट आदि विषयोंसे अवच्छिन्न चेतनाश्रित अज्ञान द्वारा किये गये आवरणके अभिभव ( निवृत्ति ) के लिए जीव अन्तःकरणवृत्तिको द्वार बनाता है अर्थात् वृत्तिव्याप्ति से पहले विषयावच्छिन्न चेतनमें अज्ञानका आवरण रहता है, जब उसका भंग होता है तब विषयावच्छिन्न चेतन और जीव चेतन दोनों की एकता होनेपर विषयका प्रकाश होता है; यों तीन प्रकारोंसे विवरणकार प्रकाशात्म श्रीचरणने इस विषयका परिहार किया है ।। ५९॥
पूर्वोक्त प्रकार से जो विवरणोक्त तीन परिहार दर्शाये गये हैं, उनमें से प्रथम पक्ष प्रश्नरूपसे आक्षेप करते हैं - 'अत्र' इत्यादिसे । इस प्रथम पक्ष में सर्वगत जीवका भी विषयोंके साथ वृत्तिके अधीन कौन-सा सम्बन्ध है ? अर्थात् निष्क्रिय और भिन्नदेशमें रहनेवाले विषय और चैतन्यका तादात्म्य अथवा संयोग सम्बन्ध होना तो असंभव है, अतः बतलाओ कौन-सा सम्बन्ध है ? ॥ ६०॥
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