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सिद्धान्तकल्पवल्ली [जीवाल्पज्ञत्ववाद विषयासंसर्ग्यपि सन्नन्तःकरणेन संसृष्टः । विषयोपरागसिधै जीवस्तावत्समीहते वृत्तिम् ॥ ५७॥ विषयावच्छिन्नचिताभेदाभिव्यक्तिसिद्धये वाऽयम् । जीवोऽन्तःकरणपरिच्छिन्नतया वृत्तिमभिलपति ॥ ५८ ॥
भासयतीति शङ्कते-नन्विति ॥ ५६ ॥ ___ ब्रह्म सर्वोपादानतया स्वसंसृष्टं सर्वमवभासयति; जीवस्त्वविद्योपाधिकतया सर्वगतोऽपि न सर्वविषयैः संसृज्यते, अनुपादानत्वात् । तथाविधोऽपि सन् व्यक्ती जातिरिव अन्तःकरणेन संसृष्टो वृत्तिद्वारा विषयं व्यामोतीति विषयैः संबन्धसिद्धयर्थ वृत्तिमपेक्षत इति विवरणोक्तं परिहारमाह-विषयेति ॥ ५७ ॥ ___ अन्तःकरणोपाधिकत्वेन जीवः परिच्छिन्नः तत्संसर्गाभावान्न विषयमवभासयति । वृत्तिद्वारा स्वसंसृष्टविषयावच्छिन्नब्रह्मचैतन्याभेदाभिव्यक्तौ तु तं विषयमवभासयतीति तसिद्धयर्थं वृत्तिमपेक्षत इति तदुक्तमेव परिहारान्तरमाह-विषयेति ॥ ५८ ॥ अवभासन करता है, वैसे जीव भी वृत्तिनिरपेक्ष विषयोंका अवभासन क्यों न कर सकेगा ? ॥५६॥
जोवको वृत्तिकी अपेक्षा रहती है, इसमें युक्ति कहते हैं-'विषया०' इत्यादिसे ।
ब्रह्म सबका उपादान होनेसे स्वसंसृष्ट सबका अवभासन कर सकता है और जीव तो अविद्यारूप उपाधिवाला होनेसे सर्वगत होनेपर भी सब विषयोंके साथ संबद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि ईश्वरकी नाई वह उपादान नहीं है। ऐसा होनेपर भी व्यक्तिमें जातिके समान अन्तःकरणसे संसृष्ट होकर वृत्ति द्वारा विषयोंको व्याप्त करता है अर्थात् विषयोंके साथ सम्बन्धकी सिद्धि के लिए वृत्तिकी अपेक्षा करता है, ऐसा विवरणकार द्वारा उक्त परिहार करते हैं-'विषया.' इत्यादिसे।
विषयोंका असंसर्गी होनेपर भी जीव अन्तःकरणके साथ संसृष्ट होकर विषयोपरागकी सिद्धिके लिए वृत्तिको अपेक्षा रखता है ॥ ५७ ॥
विवरणकार द्वारा ही कथित अन्य परिहारका निरूपण करते हैं-'विषया.' इत्यादिसे।
अन्तःकरणरूप उपाधिवाला होनेसे जीव परिच्छिन्न है, अतः विषयका संसर्ग न होनेसे वह विषयका अवभासक नहीं हो सकता, किन्तु विषयावच्छिन्न चैतन्यके साथ अपने अभेदको अभिव्यक्तिकी सिद्धि के लिए [ अर्थात् वृत्ति द्वारा स्वसंसृष्ट विषयावच्छिन्न ब्रह्मचैतन्यके साथ अपने अभेदकी अभिव्यक्ति होनेपर ] तो जीव विषयावभासन करता है। बस, इसी अभिव्यक्तिकी सिद्धिके लिए वृत्तिकी अभिलाषा रखता है ।। ५८ ।।
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