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सिद्धान्तकल्पवल्ली
[ईश्वर-सर्वज्ञत्ववाद
चित्प्रतिबिम्बग्राहकमायावृत्त्येश्वरस्यापि । सर्वज्ञतोपपन्नेत्याहुः प्रकटार्थकाराद्याः ॥ ५२ ॥ स्रष्टव्यालोचनया साक्षात्कृत्या तदुत्थसंस्मृत्या । त्रैकालिकधीमच्चात् सार्वज्यं तत्त्वशुद्धिकृत आहुः ।। ५३ ॥
गतसर्वविषयकधीवासनासाक्षितया सर्वज्ञत्वमिति भारतीतीर्थानां मतेन समाधत्ते-- अत्रेति ॥ ५१ ॥
यथाऽन्तःकरणवृत्त्या जीवस्य ज्ञातृत्वम् , एवमीश्वरस्याऽपि चित्प्रतिबिम्बग्राहकसात्त्विकमायावृत्त्या त्रैकालिकसकलपदार्थगोचरापरोक्षज्ञानाश्रयत्वेन सर्वज्ञत्वमुपपन्न. मिति मतान्तरमाह-चिदिति ॥ ५२ ॥
मूतभाविनोर्मायावृत्त्यसंभवादापरोक्ष्यासंभवं संभावयतः पुरुषान् प्रति मतान्तरमाह-स्रष्टव्येति । स्रष्टव्यालोचनयेति तृतीया धान्येन धनवानितिवदभेदविषया द्रष्टव्या । तथा चाऽऽलोचनात्मकत्रैकालिकवस्तुविषयकधीमत्त्वादित्यर्थः ॥ ५३ ॥
उपरक्त अज्ञानरूप उपाधिसे युक्त ईश्वर प्राणिगत सकलपदार्थविषयक वासनाओंका साक्षी होनेसे सर्वज्ञ है ॥५१॥
इस विषयमें मतान्तर दर्शाते हैं-'चित्प्रतिविम्ब०' इत्यादिसे ।
जैसे अन्तःकरणकी वृत्तिसे जीव ज्ञाता होता है, वैसे ही ईश्वर भी चैतन्यप्रतिबिम्बकी ग्राहक सात्त्विक मायाकी वृत्तिसे त्रैकालिक सकल पदार्थोंको विषय करनेवाले अपरोक्ष ज्ञानका आश्रय होकर सर्वज्ञ बन सकता है। ऐसा प्रकटार्थकार आदि कहते हैं ।। ५२ ॥
उक्त विषयमें कई एक शङ्का करते हैं कि भूत और भावी-इन दोनोंमें मायावृत्तिका असंभव होनेसे अपरोक्ष ज्ञानका भी असंभव होगा, अतः इस शङ्काका निवारण करनेके लिए मतान्तर दर्शाते हैं-'स्रष्टव्या०' इत्यादिसे ।। __ जैसे 'धान्येन धनवान्' इस वाक्यमें धान्यपदके आगे तृतीया विभक्ति अभेद अर्थमें है, अर्थात् धान्याभिन्न--धान्यरूप-धनवाला ऐसा अर्थ तृतीयाका होता है, वैसे ही 'स्रष्टव्यालोचनया' इस पदके आगे आई हुई तृतीयाका भी अभेद अर्थ है अर्थात स्रष्टव्य सकल पदार्थकी आलोचना ही साक्षात्कृति है, उस साक्षात्कृतिसे उस्थित ( तादृश साक्षात्काराहित संस्कारसे जनित ) स्मृतिसे ईश्वर त्रैकालिक वस्तुको विषय करनेवाले ज्ञानका आश्रय होनेसे सर्वज्ञ है, ऐसा तत्त्वशुद्धिकार कहते हैं ।। ५३ ॥
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