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प्रथम स्तवक] भाषानुवादसहिता
. २९ vvvvvvvvwv vvvvvv ६. ईश्वरस्य सर्वज्ञत्ववादः ननु जगतः कर्तृत्वाक्षिप्तं सार्वज्यमीश्वरस्य कथम् । जीववदन्तःकरणाभावेन ज्ञातृतायोगात् ॥ ५० ॥ अत्र प्राणिगताखिलगोचरधीवासनैकसाक्षितया। सार्वज्यमीश्वरस्य प्रसाधयन्ति स्म भारतीतीर्थाः ॥ ५१ ॥
wwwmrrrrrब्रह्मरूपज्ञानवत्त्वमीश्वरस्य कर्तृत्वम् , तस्य जीवं प्रत्यविशेषेण जीवस्याऽपि तत्प्रसनात् । अतः कार्यानुकूलस्रष्टव्यालोचनात्मकज्ञानवत्त्वं तदिति मतान्तरमाह-इतरे त्विति ॥ ४९॥
ननु जगत्कर्तृत्वेनाऽऽक्षिप्तं शास्त्रयोनित्वेन च समर्चितमीश्वरस्य सर्वज्ञत्वं कथं संगच्छताम् ? जीववदन्तःकरणाभावेन ज्ञातृत्वाभावादिति शङ्कते-नन्विति ॥५०॥
सर्ववस्तुविषयकप्राणिधीवासनोपरक्ताज्ञानोपाधिः ईश्वरः, अतस्तस्य प्राणि
वैसा कहना युक्त नहीं है, क्योंकि ज्ञान ब्रह्मरूप है, अतः वह अकार्य है। यदि कार्यानुकूल ब्रह्मरूपज्ञानवत्त्व ही ईश्वरका कर्तत्व मानें, तो वह जीवमें भी समान है, अतः जीवमें भी कर्तृत्वका प्रसङ्ग होगा। इस परिस्थितिमें इतर मतवाले कहते हैं-कार्यानुकूल स्रष्टव्य प्रपञ्चका आलोचनात्मक ज्ञानवान् होना ही कर्तत्वका लक्षण है ॥४९॥
शङ्का करते हैं-'ननु जगतः' इत्यादिसे ।
ईश्वर जगत्का कर्ता है, ऐसा कहनेपर उसमें सर्वज्ञत्व तो आक्षेपसे प्राप्त होता है क्योंकि जो जिसका कर्त्ता होता है, वह उसका ज्ञान पहलेसे ही सम्पादन कर लेता है अर्थात् ईश्वरका जगत्कर्तत्व, सृष्टव्य सकल जगतके ज्ञानके बिना अनुपपन्न है, अतः ईश्वरमें सर्वज्ञता सिद्ध होती है, और 'शास्त्रयोनित्वात' (ब्र० १।१।३ ) ( वेदादि शास्त्रका कारण ) इत्यादि प्रमाणोंसे ईश्वरकी सर्वज्ञताका समर्थन भी किया गया है, परन्तु यह सर्वज्ञता ईश्वरमें कैसे मानी जा सकती है ? क्योंकि जैसे अन्तःकरणके होनेसे जीव ज्ञाता होता है, वैसे ईश्वरको अन्तःकरण है नहीं, अतः उसमें सर्वज्ञता तो दूर रही, साधारण ज्ञाता भी वह नहीं बन सकता ॥५०॥
इस शङ्काका श्रीभारतीतीर्थके मतानुसार समाधान करते हैं-'अत्र' इत्यादिसे।
ऊपर निर्दिष्ट शङ्काके विषयमें श्रीभारतीतीर्थ मुनि यों कहते हैं कि सब वस्तुओंको विषय करती हुई सकलप्राणियुद्धिकी जो वासनाएँ हैं, उन वासनाओंसे
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